शहर, खिड़की और लोग (5) - भीड़ जंक्शन पर उदासी लोकल आ रही है...

खिड़कियों की कहानियां लिखते, एक अजीब से अवसादी मानस में जाने से बचने के लिए एक अलग सी खिड़की की कहानी लिखनी शुरु की गई...पाठक के तौर पर हमको लेखक कोई दूसरी दुनिया के लोग लगते हैं...हमको लगता है कि वो कैसे ऐसी कहानी सोच लेते हैं...हमको लगता है कि लेखक के पास कहानियों के प्लॉट तैयार रहते होंगे...वो झट से कहानी लिख लेते होंगे...पर ऐसा होता नहीं है...ज़्यादातर मौकों पर हमारे पास महज कोई जगह, कोई किरदार या फिर शायद केवल कोई एक संवाद होता है...हम लिखना शुरु कर देते हैं...और यही लेखक, लेखक और कहानी की यात्रा है...किरदार, जगहों, संवादों के ज़रिए, लोगों और दुनिया के दुख, तक़लीफ़, त्रासदी और उनके बीच की खुशियों, सुखों और संतोष को खंगालते चलने की...खिड़की की पांचवी किस्त और चौथे स्केच को अवसाद से बचने और फॉर ए चेंज लिखना शुरु किया गया...सिर्फ खिड़की थी, किसी इमारत की जगह, एक लोकल ट्रेन की..और एक लड़की थी...क्योंकि किसी लोकल ट्रेन की खिड़की से बाहर देखता कोई लड़का कभी उतना ख़ूबसूरत नहीं दिख सकता...जितनी उसकी उदास आंखें लगती थी...लिखते हुए, लेखक को महसूस हुआ कि दरअसल अवसाद या दुख से दूर जा पाना तब तक असंभव है, जब तक किसी भी खिड़की पर ऐसी आंखें रखी हैं...उसकी तो हर खिड़की पर ऐसी ही उदास आंखें हैं...और इसीलिए खिड़कियों की कहानियों की ये सीरीज़ बेहद अहम है...पढ़िए, भीड़ जंक्शन पर उदासी लोकल आ रही है... 

ये भी एक खिड़की है, बस ये आपके देखते-देखते चलते हुए दूर निकल जाती है। पर ये खिड़की भी इस शहर की ही खिड़की है, इस शहर की धड़कन कही जाने वाली मुम्बई लोकल की एक खिड़की...
मैंने जब खिड़कियों की कहानी कहने का फैसला किया तो ज़ेहन ने अचानक फैसला कर लिया कि वो अपने दरवाज़े बन्द कर लेगा...लड़ाई जारी है और अभी वो पूरी तरह से दरवाज़े बन्द नहीं कर सका है, जिस से किरदार अंदर से बाहर आ और जा रहे हैं...हां, खुशी भले ही फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा की तरह भ्रामक या अल्पायु है, दुख अभी भी अमीनाबाद में पायजामे के बिकते इज़ारबंद के गुच्छों की तरह प्रासंगिक है...ज़्यादातर लोग अभी भी पायजामे में नाड़ा ही पसन्द करते हैं...वजह बस ये है कि हम कभी नहीं जानते कि हमारी रस्सियां कितनी लम्बी होनी हैं...
ये खिड़की, मुंबई लोकल के उस दरवाज़े के बगल की है, जिस के एक ओर लिखा होता है विकलांग एवम् कैंसर पीड़ितों के लिए...3 साल पहले, विकलांग को हटा कर वहां दिव्यांग लिख दिया गया था...लेकिन उससे न तो खिड़की पर बैठी उस लड़की की आंखों पर कोई फ़र्क पड़ा और न ही उसमें घुस कर सीटें घेर कर बैठ जाने वाले हट्टे-कट्टे मर्दों पर...जिनके लिए विकलांग होना, मनुष्य होने से अलग बात थी...लेकिन बात खिड़की की है...शहर की है...लोगों की है...

वो बाहर खड़े किसी भी शख्स को बेहद ख़ूबसूरत दिखती है, क्योंकि उसकी बाहर देखती आंखों में एक बेइंतिहा उदासी है...इतनी उदासी कि उन आंखों में डूब कर मरा भी नहीं जा सकता है...क्योंकि मौत, इतनी उदास नहीं है...हां, ये भी सच है कि लड़कियों की आंखों की उदासी, उनको बेहद ख़ूबसूरत बनाती है...उसको बाहर से देखता कोई भी शख्स, सिर्फ उसकी ख़ूबसूरत आंखों को देख सकता है...उसकी अंगुलियों के नाख़ूनों की ख़ूबसूरती को देख सकता है...उसके कानों पर लटकते बालों की लट को देख सकता है...उसके कानों की उस बाली को देख सकता है, जिसके कोनों पर ज़ंग उभरने लगी है...पर उस उदासी को देख पाना सिर्फ उसी वक़्त सम्भव है, जब वो मुस्कुराती है...और खिड़की से बाहर देखते वक्त, वह बिल्कुल भी नहीं मुस्कुराती है...

वह खिड़की से बाहर क्यों देखती है, वह भी ऐसी उदासी से, ये देखने के लिए आपको खिड़की से अंदर जाना होगा...मैं अपनी दुर्घटना के बाद लम्बे समय तक बैसाखियों पर अस्थायी विकलांग हो चुका था और इसलिए उस डिब्बे के अंदर जा सकता था...लेकिन मैं उसे बाहर से भी देख पाता था...क्योंकि मैं उसे बाहर से भी देखना चाहता था...रेल को आते देखता हुआ, मैं अगर उसी वक्त प्लेटफॉर्म पर होता, तो मुझे पता होता कि खिड़की से दो उदास ख़ूबसूरत आंखें बाहर झांक रही होंगी...वो मुझे कभी देखती भी नहीं थी और उसे किसी को नहीं देखना था...वो बाहर नहीं देख रही होती थी...वो आंखें खिड़की पर रख कर, अंदर देखती थी...अपनी ज़िंदगी और त्रासदी के अंदर...
अंदर उसके बगल में कोई शख्स आकर बैठा होता था, जिसकी कुहनी उसको छूने की कोशिशों में मुब्तला होती थी...या सामने बैठा बुज़ुर्ग उसको घूर रहा होता...कई बार स्कूली बच्चे, उसको ऐसे देखते कि वह सिहर उठती...लेकिन ये तक़लीफ़ किसी भी लड़की की हो सकती थी...होता यूं भी था कि कोई महिला आती और उससे खिसक कर बैठने को कहती और वह अपना दायां मुर्दा पैर, अपने बाएं हाथ के ज़ोर से खिसका कर कोशिश करती कि एक तीसरा शख्स भी दो लोगों की सीट पर बैठ सके...महिलाएं कई बार उसके देर लगाने पर खीझ जाती और उसको समझाइश देती कि उसे अकेले नहीं चलना चाहिए...क्या किसी का साथ दिखाई देना, साथ होना होता है...वह उसी दिन से अकेली थी, जब से दायां पैर मुर्दा हुआ था...उसकी मां को चिंता थी कि वह कैसे आगे ये जीवन काटेगी...उसके पिता को चिंता थी कि दहेज ज़्यादा देने पर भी क्या उसकी शादी होगी...उसके भाई को चिंता थी कि वह आखिर कैसे हर रोज़ उसको स्कूल या कॉलेज छोड़ने जा सकता है...उसकी सहेलियों को चिंता थी कि उसके पैर की वजह से उनकी रफ्तार कम न हो जाए...उसके प्रेमी ने इस चिंता में उसको छोड़ दिया था कि चार पैरों में से एक पैर कम हो गया है तो बैलेंस कम है...सिर्फ वह लोग निश्चिंत थे, जिनको मौके की तलाश थी...और उनको पता था कि आखिर कितना दूर भागेगी...
वो बड़ी हो रही थी और जितनी निगाहें उसकी ओर दया से देखती थी, उतनी ही लालच से भी...मज़े की बात ये थी कि लालची और दयाभरी दोनों ही निगाहें, उस से प्रेम नहीं करती थी...दया और लालच, कितने एक जैसे हैं...एक अपने आप को महान बनाए रखने का लालच और एक अपनी कुंठाओं के प्रति दयाभरा होना...उसका पढ़ाई में मन नहीं भी लगता था, तो उसे मेहनत से पढ़ना होता था...क्योंकि उसे उस जेल से आज़ाद होना था, जिसे सब घर कहते थे...लेकिन घर से उसे पढ़ाई और नौकरी पा लेने के बाद भी कोई आज़ाद नहीं करना चाहता था...
हर सुबह उसकी मां, उसको बस टिफिन पकड़ा देती और कहती कि शाम ढलने से पहले वो घर आ जाए...पिता उसे कहते कि पहले ही शादी नहीं हो रही और नौकरी में तरक्की नहीं हो रही है, तो उसे घर बैठ जाना चाहिए...भाई को लगता था कि उसे उसके दाएं पैर की वजह से नौकरी मिल गई है...जबकि भाई के समझ के अलावा उसके दोनों हाथ और दोनों पैर सलामत थे...उसे पता था कि इस दुनिया में समझ की ज़रूरत ही नहीं है...तो फिर उसके पास नौकरी न होने की वजह, उसकी बहन का वो पैर है, जो ख़ुद हिल भी नहीं सकता...एक रोज़ उसने उसकी गर्दन पकड़ कर कहा था कि उसकी वजह से वो आत्महत्या कर लेना चाहता है...उस दिन वह आत्महत्या करना चाहती थी और फिर उसने तय किया भले ही भाई आत्महत्या कर ले...वह अपनी आज़ादी की हत्या नहीं करेगी...

मां ने कभी जल्दी आने को कहते वक्त नहीं सोचा कि वह किसी रोज़ 10 मिनट लेट भी आई, तो उसके दाएं पैर को माफ़ किया जा सकता है...पिता की नौकरी छोड़ने की सलाह उसकी तरक्की की चिंता की वजह से कम और शादी के लिए उससे कमतर लड़कों के अहम को तुष्ट करने की वजह ज़्यादा थी...भाई...वो तो समझ को ही बेकार की चीज़ मानता था...उसको अपने नाकाम होने की दो वजहें पता थी...आरक्षण और अपनी बहन...दोनों ही वजूहात दरअसल वजह नहीं थी...पर कोई न कोई वजह इसलिए ज़रूरी होती है, क्योंकि कोई वजह न हो, इस वजह से आप अपने जीवन को हार सकते हैं...
कई बार उसे देख सामने बैठा कोई युवक मुस्कुरा देता था...क्योंकि वह थी ही इतनी ख़ूबसूरत...पर नहीं मुस्कुराती थी...क्योंकि उसको पता था कि हर बार जब वह अपना दायां पैर हाथ से खींच कर, खड़ी होती है...तो उस युवक के भाव बदल जाते हैं...सुंदरता में कोई कमी नहीं हो सकती है...वह सम्पूर्ण होनी चाहिए...आपकी नीयत में भले ही कमी हो...आपके हाथ पैर मानक होंगे...और स्त्री...वह कैसे विकलांग हो सकती है...उसे पता था कि अभी अगर वो थोड़ा सा भी खुश हुई, तो बाद के भाव देखकर उसे और उदास हो जाना है...बहुत उदास...हां, वो अस्थायी विकलांग आदमी उसे देख कर हर बार मुस्कुराता था...जिसकी मुस्कुराहट से वो सिर्फ इसलिए डरती थी क्योंकि उसे यकीन ही नहीं था, कि उसे खड़े होते और चलते देख भी कोई सहज मुस्कान बनाए रख सकता है...और जब एक रोज़ उसने सामने बैठे हुए, उसके हाथ में पकड़ी हुई किताब देख कर पूछा था, 'माया एंजेलो....???' तो उसने तुरंत किताब मोड़ कर, वापस बैग में डाल ली थी... 
रेल के डिब्बे में वह सिर्फ एक ही वक्त मुस्कुराती थी...जब कोई गर्भवती महिला आकर खड़ी हो कर इंतज़ार करती कि कोई उसके लिए सीट छोड़ दे...वह तुरंत अपनी क्रच संभाल कर खड़ी हो जाती...और मुस्कुरा कर उसे अपनी जगह बैठने को कहती...यह देखकर हर बार वह कोई स्त्री, हैरान हो जाती और उसे बैठे रहने को कहती...बाकी डिब्बे के सारे लोग, न कहे जाने पर भी बैठे ही रहते...सबके बैठे रहने की वजह से ही उसे खड़ा हो कर, गर्भवती स्त्रियों को सीट देनी पड़ती...पर वह इस वक्त बेहद खुश होती...
खिड़की के बाहर की दुनिया, खिड़की के अंदर भी नहीं बदलती थी...और इसलिए वह जब खिड़की के बाहर देखती दिख रही होती थी...वह तब भी अंदर ही देख रही होती थी...उसके दाएं पैर के पास अगर शक्ति न भी होती...पर एक अलग दिमाग होता...तो वह कोई किताब लिख देना चाहता...इस बारे में कि उसके मुर्दा हो जाने से वह लड़की किस कदर हसीन हो गई थी...और वह खिड़की, तभी तक खिड़की रहने वाली है, जब तक कि वह लड़की वहां बैठी है...कुछ खिड़कियां बाहर देखने के लिए नहीं होती हैं...सिर्फ अंदर झांकने के लिए होती हैं...पिछले तीन महीने से वह उस खिड़की पर नहीं दिखती है...मैं 11.34 की बोरीवली-चर्चगेट की वह लोकल अब हर बार छोड़ देता हूं...क्योंकि कोई बाहर की ओर आंखें कर के, अंदर नहीं देख रहा होता है...क्या उसकी शादी हो गई होगी? या उसके भाई को नौकरी मिल गई होगी??? या फिर वह किसी दूसरे शहर निकल गई होगी...अपने दाएं पैर को बिना ज़रूरत शरीर से जुड़ा साबित करने के लिए...या फिर...
इस आख़िरी या फिर को मैं या हर लेखक, अपनी किसी भी कहानी से निकाल देना चाहता है...पर आपको नहीं पता है कि लेखक, अपने हर किरदार के साथ इतनी बार मर जाता है कि उसे या फिर...के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं मिलता...जो इतना अहिंसक हो...और इतना हिंसक भी...लेखक कभी अहिंसक नहीं होता...वह अपने साथ बेपनाह हिंसा करता है...और हर खिड़की के अंदर, बाहर से कहीं ज़्यादा रेल महसूस होती है...हम सब रेल में ही तो सफर कर रहे हैं...रुकते हुए...न रुकना चाहते हुए भी...मंज़िल से पहले हर बार बेवजह लेट हो जाने वाले...और हां, आपको नहीं पता है, हम सब पटरियां भी हैं...जिनको हमारी ही रेल रौंद रही है...बस मैं उस दाएं पैर को जानता हूं, जिनके ऊपर एक जोड़ी खूबसूरत आंखें थी...जिनमें इतनी उदासी थी कि डूब के मरा नहीं जा सकता था...मृत सागर या डेड सी के पानी में इतना नमक है, कि उसमें कोई नहीं डूबता...आंसू जितना नमक...आंसुओं के सागर में डूब कर कोई नहीं मरता...सिर्फ समंदर मर चुका होता है, आंसू बनने के पहले...मैं ज़िंदगी भर उस खिड़की से अंदर झांकता रहूंगा...जब भी वह खिड़की, उन आंखों को लेकर आएगी, मैं पहचान लूंगा...क्योकि वैसी उदासी मैंने उससे पहले और उसके बाद कभी नहीं देखी...

- मयंक 

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट