शहर, खिड़की और लोग – 7 (वो मोबाइल बंद कर, सो गई है..)

इस कहानी को लिखते वक़्त कोई और मनोभाव नहीं आए...जितना सोचता गया, बस उतना ही लिखता गया...मैं जान भी कितना सकता हूं, पुरुष हो कर किसी लड़की को...उसके अंदर क्या चलता होगा, अंदाज़ ही तो लगा सकता हूं...इसमें न जाने क्या-क्या सोचा जाना छूट गया है...किसी का उसको चलती रेल में ग़लत तरीके से छू लेना...मासिक धर्म के दौरान बेचैनी और मूड स्विंग्स...और भी न जाने क्या-क्या...जो मैं महसूस नहीं कर पाता...उसे कैसे लिख दूं, ऐसे जैसे कि मैंने समझ लिया...फिर भी बहुत कुछ लिख पाया हूं, जो पहले महसूस नहीं कर पाता था...मेरे जीवन की दो स्त्रियों का मैं इसके लिए मैं सबसे ज़्यादा आभारी हूं...इला और देविका...तुम दोनों को शुक्रिया...मुझे बेहतर पुरुष और बेहतर मनुष्य बनाने के लिए...बाकी तमाम स्त्रियों को भी आभार, जिनके नाम नहीं लिए जा सके...
- लेखक 




उस खिड़की पर एक झीना सा पर्दा था...झीना सा मतलब...उससे आप वो सब देख सकते थे, जो आपको बस ये बताता कि अंदर एक लड़की है, अगर चोटी बंधी हो और ये नहीं बता सकते थे कि वो परेशान है...अगर उसके रोने या चिल्लाने की आवाज़ बाहर न आए। अक्सर पर्दा हटता था और वो हमेशा हंसती दिखती थी...बेहद सामान्य...उतनी ही सामान्य, जितना सामान्य उसका रोज़ उसी वक्त फोन पर चिल्लाना और रोना था। सामान्य मेरा उसे एक झलक देख लेने का मन भी था, जो हर रोज़ तब होता था, जब वह पर्दा खींच रही होती थी और मैं बस उसका वो हाथ देख पाता था, जिस पर गाढ़े रंग का नेलपेंट, एक ब्रेसलेट और पतली सी कलाई घड़ी होती थी। उसके हाथ सांवले थे, ठीक वैसे ही जैसे मुझे पसंद थे। उसकी आंखें, दुख से भरी थी और उसके होंठ अतिरेकता में मुस्कुराते थे..इतनी खिड़कियों में वही एक खिड़की थी, जो मुझे देख रही थी। हालांकि वह मुझे किस नज़र से देख रही थी, ये मुझे नहीं पता था। हां, मुझे यकीन है कि उसे पता था कि मैं उसे देख रहा था और वह जानती भी है कि मैं उसे तब खासतौर पर देखना चाहता हूं, जब वह रोती थी, हालांकि मुझे देखने वालों को लगता था कि मैं उसे कपड़े बदलते देखता हूं...सच वो जानती थी, शायद मैं नहीं...
मैं ये बताना भूल गया हूं कि वह सामने के अपार्टमेंट की खिड़की थी, जो मेरी खिड़की के सबसे नज़दीक थी, इस बात के बावजूद मैं उसे सबसे कम देख सका था...कई बार देखने के लिए आंखों से ज़्यादा कान और मन चाहिए होता है...मन...जो हम सब न जाने कहां छोड़ देते हैं...और कान, जो हमेशा सुनी हुई बात को इतना सच मान लेते हैं कि सच सुनने में अक्षम हो जाते हैं! वह सामने के अपार्टमेंट की ठीक मेरे सामने की खिड़की थी, मेरे सामने वाली खिड़की जैसा कोई गाना मेरे मन में आ सकता था, अगर वो उतना रोती नहीं और मैं इतना गंभीर न होता...उसके दुख और मेरी गंभीरता में एक रिश्ता था, जो हम दोनों को एक दूसरे से दूर भी रखता था और एक दूसरे को देखते रहने पर मजबूर भी करता था। मेरी गंभीरता का तकाज़ा था कि मैं उसके दुख पर हंसूं न और उसके दुख का धर्म था कि वह हंस न दे, जिससे मेरी मुस्कुराहट, उसके दुख को हल्का न कर दे। मेरी और उसकी खिड़की के बीच बिजली के कुछ तार थे, जिनको छूने का सोच कर भी मैं सिहर जाता था और दो कबूतर हर सुबह उसी वक्त उस तार पर आकर बैठ जाते थे...हम दोनों के बीच, ठीक उसी वक्त जब वह फोन पर झगड़ती हुई, काम पर जाने के लिए तैयार हो रही होती थी...रोती हुई...मैं खिड़की पर खड़ा, चाय का आखिरी गर्म किया हुआ कप ले कर, बिना जली सिगरेट हाथ में लिए माचिस के ख़ुद जल जाने का इंतज़ार कर रहा होता था...दो कबूतर वहां बैठे आपस में कुछ बात कर रहे होते थे...बिना कुछ कहे...कबूतर...दुनिया के विस्थापितों में से एक बड़ी आबादी...हां, हम ऐसी ही दुनिया तो बनाते हैं...मेरे जैसे लोग, अपने गांवों से विस्थापित हुए और हमने शहरों में आकर, कबूतरों के घर काट कर, वहां मकान बना लिए...कबूतर...हमारे विस्थापन के विस्थापित हैं...विस्थापित न केवल उड़ना सीखता है...वह बिजली के नंगे तारों पर सोना भी सीख जाता है...आप लाख चाहें, वह अपनी ज़मीन छोड़ कर नहीं जाता...आपके रोशनदानों में अंडे देता है...फोड़े जाने पर भी बार-बार...आपकी खिड़कियों पर चोंच मारता है और आपकी गाड़ियों की छत पर अपनी विष्ठा गिरा जाता है...आपकी मूर्तियों के सिरों को सफेद कर देता है...आप उसे डरा सकते हैं, रोक नहीं सकते...नहीं-नहीं, मैं आदिवासियों की बात नहीं कर रहा...सीरिया की भी नहीं...श्रीलंका या रोहिंग्या की बिल्कुल नहीं...मैं राजनैतिक बात कैसे कर सकता हूं...मैं तो लेखक हूं...
वह भी विस्थापित थी...मुझे नहीं पता कि वह कहां से विस्थापित हो कर उस फ्लैट में आई थी...लेकिन उसकी हंसी की आवाज़ भी आती थी, तो लगता था कि रोने न लगे...वह जब भी खिड़की पर आती, उसके कानों पर फोन लगा होता था, वह जल्दी में खाना खाती, जो अमूमन नूडल्स होते और जल्दी में रोते हुए आंसू पोंछती...वह जल्दी में तैयार होती...जल्दी में कई बार पर्दा बिना हटाए और कई बार पर्दा बिना डाले, काम पर चली जाती...जल्दी में लौटती और इतनी जल्दी में होती कि कई बार बिना मेरे गंभीर होने का इंतज़ार किए, रोने लगती...हर सुबह जब वो उठती, उस बूढ़ी औरत के पुराने टेप रेकॉर्डर पर सत्तर के दशक का कोई दुख भरा गीत बज रहा होता...वह खुश दिखती खिड़की पर आती और मुझे इस तरह देखती, जैसे अभी हाथ हिला कर चाय के लिए पूछेगी...पर मैं भूल जाता कि मुझे अर्से से चाय के लिए किसी ने नहीं पूछा है। वो सुबह उठते ही खिड़की का पर्दा हटाती और कबूतरों के जोड़े को एक झलक देख कर मुस्कुरा देती। वह खिड़की पर आ कर ब्रश कर रही होती कि उसको फोन की घंटी बजने लगती। वो फोन को देखती और अक्सर शायद ये सोचती कि अभी फोन न उठाए, लेकिन उसे फोन उठाना पड़ता। किसका होता होगा वो फोन कॉल...मां का? नहीं, वो समझती है...पिता का...या भाई का...पर वो इतना क्या कहते होंगे कि वह रोने लगती होगी...क्या वो उसे घर बुलाते होंगे शादी करने के लिए और वो नहीं जाना चाहती होगी? या फिर उसके प्रेम प्रसंग की ख़बर घर पहुंच गई होगी और घरवाले उसे कहते होंगे, ‘यही करने के लिए दूसरे शहर गई हो...’ उसके लिए दूसरा शहर कौन सा था...घर भी उसके लिए घर कैसा हो सकता था...घर में क़ैद होती है, तो क़ैद में भी कई बार आप घर ढूंढ रहे होते हैं...हालांकि प्रेम भी तो वही करता है...हो सकता है कि वह उसके प्रेमी या पति का फोन हो...रोज़ सुबह वह जिस कदर रोती थी, उससे मुझे लगता था कि यह प्रेमी या पति का फोन कॉल हो सकता होगा...वह क्या कहते होंगे...उसको छोड़ देना चाहते होंगे या फिर वह उनको छोड़ देना चाहती होगी...और दोनों में से कुछ भी नहीं हो रहा होगा...फिर मैं सोचने लगता था कि घरवालों से लेकर प्रेमी या पति तक...कोई भी उसे इतना ही रुला सकता था...फिर मैं सोचता था कि मैं भी तो शायद वही था...था या हो नहीं पाया...या न होने की कोशिश में होता चला गया? होने की कोशिश में न हो जाना, न होने की कोशिश में हो जाने से ज़्यादा ख़तरनाक़ कभी नहीं हो सकता है।
वो कभी खिड़की पर कपड़े नहीं सुखाती थी, लेकिन दिसम्बर से जनवरी के बीच कुछ रविवार होते थे, जब वो बाल सुखाने आती थी...कितनी उदासी थी, उसके चेहरे पर...और आवाज़ में उतनी ही खनक, जब वो फोन पर बात करती। अमूमन उसकी बात शुरु तो ठीक से ही होती थी लेकिन फिर अचानक वह फोन लेकर अंदर जाती...कुछ समय में पर्दा गिर जाता और पहले उसके चीखने और फिर रोने की आवाज़ आने लगती। रोती हुई लड़कियां इतनी सुंदर लगती हैं कि उनको चुप कराने के बारे में नहीं सोचा जा सकता है। पुरुष सुंदर इसीलिए नहीं होते, क्योंकि वे रोना नहीं चाहते हैं। पुरुष इसलिए भी सुंदर नहीं होते हैं, क्योंकि वे स्त्री नहीं हो सकते हैं। उसके बालों से जितना पानी वो झटक पाती, उससे ज़्यादा आंसू वो बहाती थी। इतने कि पर्दा अमूमन गीला रहता और तेज़ हवा से भी उड़ता नहीं था। सुबह साढ़े 4 बजे, उसका अलार्म बजता और वह उठ कर खिड़की खोल कर आसमान देखती। शायद वो इंतज़ार करती होगी कि ऐसी बारिश आ जाए कि उसे घर से न निकलना पड़े। उसके तैयार होते-होते वो फोन आ जाता। वह रोते हुए तैयार होती, न जाने कितनी बार उसका काजल फैल जाता होगा। कई बार उस खिड़की से सामान गिरने की आवाज़ आती। मुझे न जाने क्यों लगता था कि यह आवाज़ सामान गिरने की नहीं है, सामान फेंके जाने की है। उसको अक्सर नया सामान खरीदना पड़ता होगा। आखिरी फोन शायद कैब ड्राईवर का होता होगा, जिससे वह बार-बार कहती, ‘5 मिनट में आती हूं...’ और एक रोज़ उसके घर पर एक लड़का आया था। मेरी दिलचस्पी बढ़ गई थी, लेकिन आधे घंटे बाद ही खिड़की से आवाज़ आने लगी, ‘तुम जाओ...तुमको ये नहीं करना था...तुम कोंसेंट नहीं समझते क्या...ऐसे कैसे कर सकते हो तुम...मुझे तुम जेंटलमेन लगते थे..’ लड़का अंग्रेज़ी में उसे गालियां बकते निकल गया था और फिर से खिड़की से रोने की आवाज़ें आने लगी थी।
उसको मैंने हमेशा खूब तैयार हो कर घर से निकलते देखा था। मैंने मान लिया था कि वह इस एक इच्छा को अपने शहर में रह कर पूरी नहीं कर सकी थी और किसी दिन मजबूरी में अपने शहर लौट जाने या किसी सिंदूर-मंगलसूत्र और बच्चों की क़ैद में जाने के डर से, उसे अभी ही पूरा कर डालना चाहती होगी। मुझे अचानक वो, अपने पुराने शहर के मोहल्ले की उस लड़की की तरह लगी, जो जिस रोज़ अच्छे कपड़े पहन कर, गीले बालों को ही खोल कर, कॉलेज चली जाती, उसके बारे में पूरी गली में तरह-तरह की बातें होने लगती...वो लड़की कहां होगी? पायल नाम था उसका...वो भी क्या किसी क़ैद में होगी या फिर ऐसे ही अपना सजने का शौक पूरा कर रही होगी, क़ैद में जाने से पहले....अचानक उसको हंसते देखता हूं और फिर वो मोबाइल उठा कर सामने की ओर करती है...सेल्फी खींचने के लिए...किसके लिए सेल्फी खींच रही थी वो...पति के लिए? उसको तो यह देख कर तकलीफ़ ही होती...वह शक़ करने लगता...प्रेमी भी...तो कोई और है? कोई और क्यों नहीं हो सकता?? कोई और होना, कई बार जीवित रहने भर की सांसें बचे रह जाना होता है...कोई जो आपकी तस्वीर देख कर, आह भरे...हो सकता है वह झूठ कहे...हो सकता है वह सिर्फ आपकी देह सोच रहा हो...पर देह ही तो अंतिम सत्य है...बुद्धि भी तो शरीर में ही है...देह...जब मरने के बाद स्वर्ग नर्क नहीं है...कोई ईश्वर नहीं...तो क्या बचता है...जीवन और तब तक देह...मैं बुद्ध हो रहा हूं...और मैं डर जाता हूं...किसी को न भेजे, अपने लिए भी तो खींच सकती है, अपनी तस्वीर...ताकि किसी रात या अल सुबह रोते हुए अपनी ये तस्वीर देखे और सोचे कि वह ऐसी भी दिख सकती है और हंस पड़े...सोचते हुए मैं मुस्कुरा देता हूं, मेरे अंदर की स्त्री अपने ऊपर हंस रही है और मुझ पर हंस रही है...या दोनों एक ही बातें हैं...
वो सेल्फी लेकर अचानक उदास हो जाती है...देर तक अपना चेहरा मोबाइल कैमरे पर देखती है...फिर खिड़की की ओर पीठ कर तस्वीर लेती है। मैं सकपका जाता हूं कि इस तस्वीर में मैं भी तो आ रहा हूं...क्या उसे पता है ये? या शायद उसे पता ही हो...और अचानक फोन बज उठता है...वो फोन पलंग पर फेंक देती है लेकिन फोन बजता रहता है...इस सन्नाटे में उसकी रिंगटोन यहां तक सुनाई दे रही है,
पल भर ठहर जाओ
ये दिल संभल जाए
कैसे तुम्हें रोका करूं
फोन बजता रहता है और फिर किसी सामान के गिरने या फेंके जाने की आवाज़ आती है। वो आती है फोन उठाती है और तेज़ आवाज़ में कहती है, ‘अब क्या हो गया...मैं तैयार हो रही थी ऑफिस जाने के लिए’ मुझे नहीं पता कि उधर से क्या कहा गया, पर मैं बस अंदाज़ा लगाता हूं कि कोई शातिर हंसी हंस रहा होगा...वो रोने लगती है...किसी भी तरह से तैयार हो कर, वह इतनी सुंदर नहीं लग सकती और इसीलिए उसके पास जो सबसे बेहतर श्रृंगार है...उसे चेहरे पर सजा कर वह दफ्तर रवाना हो जाएगी...उदासी...दफ्तर में भी तो ऐसे ही आदमी होंगे...टारगेट बताते...स्त्री होने का ताना देते...बॉस से अफेयर की अफ़वाह उड़ाते...और पूछते, ‘मैडम, आज बड़ा तैयार हो कर आई हैं...क्या कुछ खास बात है क्या...’ ‘मैडम आप लोगों के यहां तो शादी जल्दी हो जाती है’ ‘मैडम, आपकी बड़ी तारीफ कर रहे हैं आजकल बॉस...चक्कर क्या है’ ‘अब लड़की लोग हैं आप...क्या कहें आप से...’ ‘मैडम, आपको आज छोड़ने कौन आया था...’ ‘मैडम, आपका तो प्रमोशन हो ही जाएगा...’ ‘मैडम आप लोग तो घर चली जाती हो टाइम पर...काम तो हम लोगों को ही करना होता है...’
अभी कुछ ही देर में कैब आ रही होगी। वह अंदर जाती है और लौटती है तो मैं देखता हूं कि वह घर के कपड़ों में है। वह फोन पर बात कर रही है और अचानक फोन की स्क्रीन देखती रहती है। उसके बाद वह मुड़कर मुझे देखती है और आंसू पोंछती है। वह खिड़की के पास आ कर मुझे देख कर मुस्कुराती है और मैं सोचने लगता हूं कि वह तार पर बैठे कबूतरों को देख रही है। वह फोन काट देती है और चाय का मग उठाकर एक घूंट में शराब की तरह चाय पी जाती है। वह कपड़े बदल कर क्यों आ गई? और अचानक फोन फिर बजता है, तब जाकर मैं देख पाता हूं कि तार पर आज कबूतरों का जोड़ा नहीं है...और फिर वह फोन पर चिल्लाती है...’मैं फोन स्विच ऑफ कर रही हूं...कर लो, जो करना है...’ वो मेरी ओर देखकर फिर मुस्कुराती है...और इस बार उसमें भयानक व्यंग्य है। बूढ़ी औरत के कमरे से गाने की आवाज़ आनी बंद हो गई है, मंदिर में भजन बजने लगा है, जो शोर से भी बुरा है इस वक्त...वो पर्दा गिराती है...और कैब वाला अपार्टमेंट के गेट पर, गाड़ी से बाहर खड़ा, उसे फोन लगाता दिखाई दे रहा है...वह बार-बार फोन ट्राई करता है और फिर गाड़ी ले कर चला जाता है...मुझे पता है वो घर पर है, उसने फोन बंद कर दिया है...पर्दा गिरा दिया है...बस इतना कि पर्दा रहे और न भी रहे...मुझे पता है कि वो सो गई है...मुझे पता है कि इसकी कीमत है...पर मुझे पता है कि इसके लिए कोई भी कीमत चुकाई जा सकती होगी...

#शहरखिड़कीऔरलोग

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