यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे....
लम्बे वक्त से ब्लॉगिंग से दूर था....कुछ वक्त नहीं मिलता था...कुछ मन नहीं करता था....और कुछ ठहराव था लेखनी में....अर्से बाद आज आया हूं तो कुछ विशेष है....कल संयुक्त राष्ट्र में पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन पर एक बैठक हुई जहां कुछ विकसित राष्ट्रों ने कुछ बड़े वादे किए...तो मन में एक छोटी कविता उपजी और बह चली......पढ़ें और बचपन याद करें.....
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
शाम के धुंधलके में डराते से
सुबह हवा से लहराते से
धूप में छांव देने के मकसद से
पीपल से, कीकर से
बरगद से
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
सूरज की रोशनी से चमकते
चांदनी में चांदी से दमकते
तूफानों से झगड़ते
आंधियों में अकड़ते
इंसानों को बेहद प्यार करने वाले
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
उन डालियों पर
हम झूला करते थे
बैठते, कूदते थे उन पर
कई बार खाईं थी
निबोंलियां भी तोड़ कर
बड़े घनेरे, शाम सवेरे
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
बारिश की बूंदे पत्तों पर ठहर कर
काफी देर तक
देती थीं
बारिश का अहसास
तब शायद दुनियावी समझ
नहीं थी अपने पास
अब जब अपने पास दुनिया है
दुनिया की समझ है
दुनिया की दौलत है
दुनिया की ताकत है
तब अपने पास धूप नहीं है
छांव नहीं है
पगडंडी और गांव नहीं है
आंधी और बरसात नहीं है
छत पे सोती रात नहीं है
खेत किनारे मेड़ नहीं है
कुछ भी नहीं है
पेड़ नहीं है....
सड़क किनारे
धूप से तपता
छांव को तकता
सोच रहा हूं
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे......
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
शाम के धुंधलके में डराते से
सुबह हवा से लहराते से
धूप में छांव देने के मकसद से
पीपल से, कीकर से
बरगद से
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
सूरज की रोशनी से चमकते
चांदनी में चांदी से दमकते
तूफानों से झगड़ते
आंधियों में अकड़ते
इंसानों को बेहद प्यार करने वाले
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
उन डालियों पर
हम झूला करते थे
बैठते, कूदते थे उन पर
कई बार खाईं थी
निबोंलियां भी तोड़ कर
बड़े घनेरे, शाम सवेरे
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे
बारिश की बूंदे पत्तों पर ठहर कर
काफी देर तक
देती थीं
बारिश का अहसास
तब शायद दुनियावी समझ
नहीं थी अपने पास
अब जब अपने पास दुनिया है
दुनिया की समझ है
दुनिया की दौलत है
दुनिया की ताकत है
तब अपने पास धूप नहीं है
छांव नहीं है
पगडंडी और गांव नहीं है
आंधी और बरसात नहीं है
छत पे सोती रात नहीं है
खेत किनारे मेड़ नहीं है
कुछ भी नहीं है
पेड़ नहीं है....
सड़क किनारे
धूप से तपता
छांव को तकता
सोच रहा हूं
यहां कभी कुछ पेड़ हुआ करते थे......
प्रयावरण सम्बंधित अपने कर्त्तव्य का बोध कराती रचना. यदि विश्व को ग्लोबल वार्मिंग से बचाना है तो पेडों की रक्षा लाज़मी है.
जवाब देंहटाएंadbhut........
जवाब देंहटाएंKasam se maza aa gaya
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंधूप नहीं है छांव नहीं है
जवाब देंहटाएंपगडंडी और गांव नहीं है
आंधी और बरसात नहीं है
छत पे सोती रात नहीं है
खेत किनारे मेड़ नहीं है
कुछ भी हो पर पेड़ नहीं है....
सुन्दर भाव
laajawab sir..
हटाएं