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अप्रैल, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माओवादी (एक लम्बी कविता...)

"और कुछ नया ताज़ा सुनाओ..." (कविता)

भोला मन जाने अमर मेरी काया

मूर्ख बने रहो...“मुझे क्या पता....” का मंत्र जपो....

ऐसा मौका फिर कहां....