मूर्ति ध्वंस.....(लघु कविता...क्षणिका...)
शब्द..
भाव.....
मात्रा......
छंद..........
कविता.........
जहां से नहीं थी
आशा
वहीं से देखो
फूट रहे हैं
क्रोध...
शोभ...
द्रोह......
विद्रोह....
ध्वंस हुई हैं
सदियों से पूजित
मूर्तियां
देखो युग के
प्रतिमान
टूट रहे हैं
भाव.....
मात्रा......
छंद..........
कविता.........
जहां से नहीं थी
आशा
वहीं से देखो
फूट रहे हैं
क्रोध...
शोभ...
द्रोह......
विद्रोह....
ध्वंस हुई हैं
सदियों से पूजित
मूर्तियां
देखो युग के
प्रतिमान
टूट रहे हैं
(ये कविता बरखा दत्त और वीर सांघवी जैसे तमाम प्रतिमानों को समर्पित है....और इस युग को भी जिसे मैं प्रतिमानों के ध्वंस का युग मानता हूं...कभी इस विषय पर भी एक पोस्ट....पर फिर कभी....)
बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंसरल सहज किन्तु भाव छिपे हैं अनेक! सुन्दर्।
जवाब देंहटाएंवाह वाह।
जवाब देंहटाएंलगता है कि लखनऊ से वापस आ गये।
waah bhaavon bhari sookshm kavita
जवाब देंहटाएंItne kam alfaaz..par kitna kuchh kah gaye!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमंयक शब्द कम, मार ज्यादा। यही तो है देखन में छोटन लगे, ..... करे गंभीर।(खुद भर लेना) और बधाई भी लिखने के मामले में लेटलतीफी की।
जवाब देंहटाएंवैसे मूर्तियां तो टूटती ही रहती हैं। ये बनती ही टूटने के लिए हैं। मूर्तिकार तब तक मूर्ति तोड़त रहता है जब तक कि वह बेहतरीन दोषरहित मूर्ति नहीं बना लेता। समय रुपी मूर्तिकार भी इन मूर्तियों को तोड़ता रहेगा हर समय देखना। 47 से पहले आजादी इतना विशाल लक्ष्य था कि उसके अंदर कई महान लोगो की कमियां छुप गईं। आजादी के बाद आय़ा लोकतंत्र। आज 62 साल बाद लोकतंत्र पिटते पिटाते चल रहा है। और इसी माहौल में कई नए प्रतिमान समय बना रहा है बिगाड़ रहा है। मगर कीच़ड़ मे कमल खिलता है, तो समय अपना काम करेगा ही। कीचड़ में कमल खिलाएगा ही। चाहे कुछ हो जाए। हां मीठे पानी में भी कमल खिलता है और खिल रहा है। पर हमारे यहां जो कीचड़ आ गया है उसमें तो अभी जाने कितनी मूर्तियां टूटनी बाकी हैं। कुछ तो हम और तुम ही तोड़ने को तैयार हैं। बस शंखध्वनि बजने दो। औक हां जो जड़ता आजकल बना रखी है चंद लोगो ने, याद रखना वो हमारे समय में ही हमारे द्वारा ही टूटेगी।