ये ज़मीं हमारी नही ??

एक करीबी मित्र हैं स्वप्रेम तिवारी ...... साथ ही एक ही विश्विद्यालय में पढ़ते हैं और आजकल जी बिजनेस में रनडाउन पर प्रोडक्शन एक्सेकुटिवके तौर पर काम कर रहे हैं। उन्ही की एक काफ़ी मार्मिक कविता या कहें नज्म प्रस्तुत है इस बार। यह पंक्तिया महाराष्ट्र में हाल ही की राजनैतिक नौटंकी से उठी टीस बयां करती हैं। तो स्वागत करें स्वप्रेम का !


पराये हैं,
ये तो मालूम था हमको
जो अब कह ही दिया तूने
तो आया सुकूं दिल को

शराफत के उन सारे कहकहों में
शोर था इतना
मेरी आवाज़ ही
पहचान में न आ रही मुझको

बिखेरे क्यों कोई
अब प्यार की खुशबू फिज़ाओं में
शक की चादरों में दिखती
हर शय यहाँ सबको

बढ़ाओं आग नफ़रत की
जगह भी और है यारों
दिलों की भट्टियों में
सियासत को ज़रा सेको

सड़क पे आ के अक्सर
चुप्पियाँ दम तोड़ देती हैं
बस इतनी खता पे
पत्थर तो न फेंकों

स्वप्रेम तिवारी
www.khabarchilal.blogspot.com

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