क्या हम ग्रीस से सबक सीखेंगे?
दरअसल ग्रीस केवल एक मिसाल भर है कि किस तरह पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं अपने सबसे बदशक्ल रूप की ओर बढ़ रही हैं। अमेरिका एक शुरुआत थी और उससे हम ज़्यादा सबक सीखने में नाकाम रहे क्योंकि एक तो अमेरिका अपने विशाल पूंजीकोश के दम पर उससे अभी तक लड़ पा रहा है, दूसरा हम पर उस मंदी का कोई ज़्यादा असर नहीं पड़ा। लेकिन हम शायद इसी बात से बेहद उत्साहित हैं कि पिछली मंदी से हम लड़ ले गए, हमें ये सोचना भी गंवारा नहीं कि अगली बार भी हम लड़ पाएं, ये ज़रूरी नहीं है। ज़ाहिर है इसी लिए हमारी सरकार हमेशा की तरह बर्फ सी ठंडी है, देश आंदोलन-आंदोलन खेल रहा है, विपक्ष असल मुद्दों से ध्यान भटकाने में लगा है और हमारी प्यारी मीडिया हमेशा की तरह खबरों को बासी समोसों की तरह दोबारा गर्म कर के तरह तरह की चटनियों के
साथ बेचने की कोशिश में है।
दरअसल ग्रीस का संकट उन तमाम विकासशील मुल्कों के लिए एक संकेत है जो विदेशी कर्ज़ के बल पर विकास बल्कि तेज़ विकास का दम भर रहे हैं। ग्रीस का आर्थिक संकट उस हेरफेर की उपज है जो आमतौर पर इस तरह के तमाम देश विदेशी कर्ज़ हासिल करने के लिए करते हैं। ग्रीस ने कुछ ऐसा ही किया था, देश के सरकारी हिसाब में फ़र्ज़ीवाड़ा कर के लाभ दिखाया, जीडीपी को बढ़ चढ़ा के पेश किया गया और उसके आधार पर लगातार कर्ज़ लिया जाता रहा। ये कर्ज़ आज जीडीपी के अनुपात में 180 फीसदी पहुंच चुका है, और 2009 में यूरोपीय यूनियन की जांच में इस वित्तीय हेरफेर का खुलासा हुआ। ग्रीस को इस सच के सामने आने के बाद एक साल की मोहलत दी गई, 110 अरब यूरो का पैकेज दिया गया, लेकिन ग्रीस ने सुधरने का ये मौका भी गंवाया, पर क्या ये संभव मौका भी था इस पर आगे बात क्योंकि अभी पहला सवाल ये है कि ये वित्तीय हेरफेर हुई क्यों और क्या ऐसा हो सकता है कि ग्रीस अपने आप में ऐसा अकेला मामला हो?
निसंदेह ये अपने आप में अकेला मामला नहीं हो सकता है, क्योंकि दुनिया भर के देश लगभग इसी तरह की व्यवस्था, जिसे आप विश्व बैंक या यूरोपीय यूनियन मान सकते हैं, का पालन कर रहे हैं। वैसा ही विदेशी निवेश, कर्ज़ और उस से होने वाले विकास कार्य और एवज में कर्ज़दाता संस्था की तमाम शर्तों को मानना। मोटा विदेशी कर्ज़, एवज में राजनैतिक आर्थिक सुधारों नाम पर चालाक शर्तें और साथ साथ बड़ी संख्या में मल्टीनेशनल विदेशी ब्रैंड्स को देश में असीमित व्यापारिक हित बांटना और अपनी देशज अर्थव्यवस्था का बंटाधार कर देना। दरअसल ये व्यवस्था कृषि जैसे देशज उद्यम को तो पीछे कर ही देती है, साथ ही साथ एक देश को पंगु बनाती है, उसे विदेशी सहायता का मोहताज बनाती है, विदेशी निवेश पर निर्भर कर देती है। इन दोनो के लालच में शुरु होता है विकास दर और उत्पादन दर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का खेल, और उसकी परिणिति होता है ग्रीस। दुनिया में आज ऐसे देशों की बड़ी संख्या है जो विदेशी ऋण लेते हैं, केवल भारत की ही बात करें , तो हर भारतीय नागरिक पर 200 डॉलर का कर्ज़ है, ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि दुनिया के और देश जीडीपी और विकास दर जैसे आंकड़ों में हेरफेर कर के अधिक निवेश और ज़्यादा कर्ज़ पाने की कोशिश नहीं करते होंगे।
इस परिप्रेक्ष्य में अहम सवाल ये है कि क्या वाकई ग्रीस भारत के लिए खबर नहीं है और हमें ग्रीस को देख चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं। ये मेरा व्यक्तिगत मत लग सकता है लेकिन दुनिया के सभी तथाकथित प्रगतिशील देशों को इस घटना से चिंतित होने की ज़रूरत है, और ग्लोब के तमाम विकासशील देशों की तरह भारत की प्रगति का बड़ा हिस्सा भी उसी विदेशी निवेश और कर्ज़ पर निर्भर है, जिसकी इस लेख में बात की जा रही है। दरअसल विदेशी निवेश कोई पाप नहीं है, लेकिन समस्या ये है कि विश्व बैंक या आईएमएफ या फिर यूरोपीय यूनियन की नीतियां आपको मजबूर करती हैं कि आप इस विदेशी निवेश की प्रासंगिकता, आवश्यक्ता और सीमा पर न सोच पाएं। और इसके तमाम उदाहरण आपको दिखेंगे, ज़ाहिर है कि लगातार सरकार को लाभ दे रही सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में भी जब विनिवेश की बात होने लगे, तो ये सोचना लाज़िमी है कि हम आखिर ये क्या और क्यों कर रहे हैं।
ग्रीस निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण सबक होना चाहिए, और इस बात को समझने के लिए अर्थशास्त्री होना ज़रूरी नहीं कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है, कृषि नीतियां सर्वहारा की दुश्मन क्यों होती जा रही हैं, निजी बैंकिंग किस तरह ऑपरेट कर रही है और बाज़ार को किस तरह से कुछ भी बदलने के लिए आज़ाद छोड़ा जा रहा है। बाज़ार के समर्थक लगातार ये दुहाई देते हैं कि ग्लोबलाईज़ेशन ने किस तरह से देश को बदल दिया है। युवा मोटी तन्ख्वाह पर आईटी जैसे सेक्टर्स में काम कर रहे हैं और लोगों के रहन सहन का स्तर सुधरा है। सवाल ये है कि ये आंकड़ें कितनी आबादी पर लागू हो रहे हैं, क्या जो आईटी या मैनेजमेंट नहीं जानता, उसके रहन सहन में भी सुधार हुआ है। क्या हैजे से मरने वाले नवजात शिशुओं की तादाद कम हो गई है? क्या गरीबी रेखा के नीचे लोग अब गिने चुने बचे हैं और क्या जीडीपी हमारे सकल विकास के साथ साथ प्रति व्यक्ति विकास को भी दर्शाती है। सवाल ये है कि जो सरकार जीडीपी की घोषणा धूमधाम से, माइक-कैमरों पर करती है, वही प्रति वयक्ति आय के आंकड़ों के आने पर प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करती, क्यों नहीं सार्वजनिक तौर पर गरीब लोगों की प्रति व्यक्ति औसत आय पर चर्चा होती है। क्या ये आंकड़ें केवल एनजीओ के गोरखधंधे को बढ़ावा देने के लिए हैं।
दरअसल भारत की जीडीपी भी एक सुनहरा धोखा है, जैसे कि ग्रीस में हो रहा था। ग्रीस में आज जनता सड़क पर है, क्योंकि सरकार ने कटौती प्रस्ताव पारित किया है। इससे लोगों की तन्ख्वाहें कम होंगी, टैक्सों का बोझ बढ़ेगा और मुद्रा का दिन पर दिन अवमूल्यन होने से महंगाई भी बढ़ सकती है। हमारे जैसे देशों में भी एक तबका है जो बेहद मोटी तन्ख्वाहों पर नौकरी कर रहा है, और न केवल उसकी जीवनशैली बेहद विलासितापूर्ण हो गई है बल्कि वो असल मुद्दों से दूर भी है। यहां पर मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि केवल जंतर मंतर पर इकट्ठे होकर नारे लगा देने भर से युवा पीढ़ी सतर्क और सजग नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि वो बस्तर और मणिपुर के अपने हमउम्र साथियों के बारे में कोई जानकारी नहीं रखती। दरअसल ग्रीस वो वर्तमान है, जो तमाम विकासशील देशों का भविष्य हो सकता है। ग्रीस, जिसे सभ्य जीवन शैली का प्रणेता माना जाता है, आज नव विकासवाद के दुष्प्रभावों का मरीज़ है। आपको समझना पड़ेगा कि बचपन से ही आपको जिस तरह उपभोक्ता बनाया जाता है, उसके अपने दुष्प्रभाव भी होंगे और उनसे बचने के लिए रास्ते ढूंढने होंगे, जो केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी से नहीं निकलेंगे, बल्कि खुद अपनी सहायता करने से सामने आएंगे। ये संभव नहीं है कि आप बाज़ारवाद के फ़ायदे के मज़े उठाएं और उसके नुकसानों से बचे रहें।
ग्रीस के संकट को भारतीय परिप्रेक्ष्यों में बदल कर देखना होगा, दरअसल शायद ये कहना ज़्यादा सही होगा कि अमेरिका के मुकाबले ग्रीस का संकट भारतीय माहौल और परिस्थितियों के ज़्यादा करीब है और इसीलिए अमरीकी मंदी के असर से बच निकल आने को इस तर्क के पीछे का अति आत्मविश्वास बनाना घातक हो सकता है, कि हम तो अमेरिकी मंदी से भी अप्रभावित रहे। गोल दुनिया लगातार घूमती है और हम वहीं लौट कर आते हैं जहां से हमने चलना शुरु किया था, दुनिया में जिन सिद्धांतो को अव्याव्हारिक बता कर खारिज किया गया, वो समाजवादी अर्थव्यवस्था वापस राह में खड़ी है, जिस पूंजीवादी व्यवस्था को विकास की सीढ़ी मान के चढ़ा गया, उसके दूसरी ओर ढलान है। ज़ाहिर है समानता ही समतल हो सकती है, बाकी हर रास्ते में चढ़ाई के बाद ढलान होगी ही। बेहतर होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह पूंजीवादी बनाने के प्रयासों के खिलाफ आवाज़ उठाई जाए, नीति निर्धारक भी सोचें और आप भी। ग्रीस की आवाज़ें अनसुनी करना महंगा पड़ सकता है।
मयंक सक्सेना
bahut hi acha likha apane.... jis tarah se bigadati bhartiya arthik vyavastha par apane jor dala hai vakayi behad khubsurat hai....
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