सालगिरह मुबारक पाकिस्तान...
बचपन से 15 अगस्त को स्कूल में होता था...बड़ा हुआ तो कॉलेज में जाने लगा...या फिर आस पास के किसी स्कूल या पिता जी के दफ्तर में...नौकरी में आया तो हर बार 15 अगस्त को दफ्तर में रहा...सुबह से देशभक्ति के नाम के झूठे नारे टीवी पर चलवाता रहा...लाल किले से किसी ने किसी धोखेबाज़ की ठगी को लाइव दिखवाता रहा...भाषणों का विश्लेषण करने के लिए बेईमान लोग पैनल में बैठते रहे...हम 15 अगस्त की भी टीआरपी काउंट करते रहे...इस बार उत्तराखंड के आपदा प्रभावित इलाकों में हूं और अचानक से उठता देशभक्ति का ज्वार देख रहा हूं...
कभी 15 अगस्त की सुबह आस पास के किसी सरकारी स्कूल में जाता था तो देखता था कि ज़्यादातर शहरी लोग घरों में उस रोज़ छुट्टी मनाते थे...स्कूलों में सिर्फ बच्चे होते थे...15 अगस्त का मतलब शाम की सैर था...लेकिन हां हम सब बहुत बड़े देशभक्त थे...पाकिस्तान के खिलाफ सिर्फ जंग चाहते रहे गोया वहां इंसान ही न रहते हों...
हम को समझना होगा कि दो मुल्कों का बंटवारा एक सियासी फैसला था...जिसके पीछे कुछ सियासी ख्वाहिशें थीं...हम को समझना होगा कि बंटवारा न तो गांधी ने कर दिया था...न ही सिर्फ अंग्रेज़ों ने...और न ही उसके लिए देश में कोई जनमत सर्वेक्षण हुआ था...
ठीक उसी तरह हमको समझना होगा कि बंटवारे के बाद जो दंगे हुए...जो हिंसा अब तक होती आ रही है...जो तनाव है...वो भी सियासी मुआमला है...सियासत ही करवाती आ रही है...जंग से लेकर समझौतों और वार्ताओं तक कभी आम आदमी से वोटिंग तो करवाई नहीं गई कि भई ये कर रहे हैं...तुम क्या कहते हो...
हमको समझना होगा कि रोटी, रोज़गार और रिवाजों के मसायल दोनों ओर हैं...दोनों ही मुल्कों के लोग एक ज़ुबां बोलते हैं...हमारे यहां तो सुनने में भी एक ही है...जिसे वो उर्दू समझते हैं, उसे हम हिंदुस्तानी कहते हैं....लेकिन बाकी दुनिया में भी वो ज़ुबान दरअसल सुनने में एक जैसी न लगते हुए भी एक ही सी है...वही भूख, दर्द, गरीबी, जंग की ज़ुबान...कुल मिला कर आंसुओं की ज़ुबान जिसे बमों और दमन से बंद किया जाता रहा है...फिर आखिर हम कैसे एक नागरिक के तौर पर पाकिस्तान या किसी भी मुल्क के नागरिक से नफ़रत कर सकते हैं...ये जानते हुए भी कि जंग आखिरकार फौजियों की जान और नागरिकों की ज़िंदगी मुश्किल में डालती है हम बार बार जंग का समर्थन करते हैं...आखिर क्यों ये समझना मुश्किल है कि रघुआ और रमज़ानी के हालात ज़्यादा अलग नहीं हैं....अल्पसंख्यक दोनों जगह वैसे ही हालात में हैं..बल्कि हमारे यहां फिर भी बेहतर हालात में...
ज़रा सोच कर देखिए कि हमारी देशभक्ति क्या वाकई हमेशा हमारे साथ रहती है या फिर त्योहारों पर उमड़ आने वाली धार्मिकता की तरह मौके-मौके पर उमड़ती है...क्या देशभक्ति का मतलब सिर्फ पाकिस्तान के खिलाफ वैमनस्य की भावना है...तो फिर उत्तराखंड या उड़ीसा या छत्तीसगढ़ या बंगाल या राजस्थान या आंध्र या मणिपुर की दिक्कतों को लेकर हमारा उदासीन रहना ये हमारे देशद्रोही होने का परिचायक नहीं है...अपने ही मुल्क के लोगों को भूख से तड़पता छोड़ हम पाकिस्तान से अदावत निभा कर आखिर किस तरह की खोखली देशभक्ति को प्रमाणित करते हैं...क्या देश से मुहब्बत किसी और से दुश्मनी है या फिर अपने देश के तकलीफ़शुदा लोगों से मोहब्बत करना है...हम आखिर किस तरह के लोग हैं...क्या 15 अगस्त और 14 अगस्त को पाकिस्तान को गाली बक कर और जॉर्ज पंचम के अभिनंदन में लिखे गए राष्ट्रगान को गाकर हम देशभक्त हो जाएंगे...
पाकिस्तान एक सियासी मजबूरी के साज़िश और फिर गलती में बदल जाने की सबसे बड़ी मिसाल है...आज वहां की अवाम लगातार मज़हबी आधार पर मुल्क बांट लेने की सज़ा भुगत रही है...हम उनसे कहीं बेहतर स्थिति में है फिर वहां के बेगुनाह अवाम के लिए सहानुभूति की जगह अदावत और नफ़रत क्यों...
हम बेहतर हालात में हैं...हम सड़कों पर उतरते हैं...वोट डालते हैं...हमको कोई मज़हबी धमका कर सरकार चुनने या शरिया मानने को बाध्य नहीं कर सकता है...हमसे कोई नहीं कह सकता है कि तुमको मंदिर जाना ही होगा...हमारे यहां कोई तय नहीं करता कि लड़कियां साड़ी या बुरका पहनेंगी ही...हम तमाम मामलों में बेहतर हैं...सोचिए उन लोगों की जो पिछले 65 सालों में आधे दशक के बराबर फ़ौजी हुक़ूमत और मज़हबी पागलों को झेलते रहे...
क्या हम दुश्मनी की आग में पागल हो जाने वाले लोग हैं...फिर हमने क्या ख़ाक दिमागी तरक्की की है...इतने साल बाद हम आज यहीं पहुंचे हैं...क्या हमारे मुल्क में और दिक्कतें मसले नहीं हैं...क्या हमें अपने मुल्क के तमाम हिस्सों में काम करने और उनको भी भूख, गरीबी और पूंजीवादी शोषण से बचाने की ज़रूरत नहीं हैं...क्या वाकई हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत सिर्फ दुश्मनी है...
ज़रा सोच के देखिएगा कि आपने मुल्क के लिए अब तक किया ही क्या है...क्या वो मुसलमान गद्दार हो सकते हैं जो अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और सगे-भाई बहनों के भी पाकिस्तान चले जाने के बावजूद भी अपनी मिट्टी और वतन छोड़ कर नहीं गए...और जो चले गए वो तो हिंदुस्तानी ही नहीं...उनसे क्या नाराज़गी...क्या 47 के दंगों में सिर्फ हिंदू या मुसलमान मरे थे...क्या मुल्क की एकता और इंसानियत नहीं मरे थे...हम आखिर किस तरह के लोग हैं, क्या हम वाकई अपनी अंधी आस्था और मज़हबी पागलपन के आगे कुछ सोचना ही नहीं चाहते...क्या मुल्क वाकई बहुत तरक्की कर चुका है और अब बस तरक्की की आखिरी मंज़िल जंग है...जंग अगर वाकई मसायल का हल होती तो अब तक कश्मीर से लेकर मणिपुर और अमेरिका से इज़रायल तक सब अनसुलझा क्यों है...
हम वो लोग हैं जो सड़क पर दुर्घटना में घायल पड़े आदमी को मरता छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं...लेकिन हम देशप्रेम के नाम पर पाकिस्तान को मटियामेट कर देना चाहते हैं...सच सुनिएगा और भले ही गाली बकते रहिएगा लेकिन वो ये ही है कि पिछले 65 सालों में जम्हूरियत के लिए जो संघर्ष पड़ोसी मुल्क के हमारे भाई-बहनों और साथियों ने किया है...वो हमने नहीं किया...न ही उतनी दिक्कतें झेली हैं...हमको सलाम करना चाहिए उस अवाम को जो गोलियां खाती है...फांसी पर चढ़ती है...तालिबान से लोहा लेती है...जहां नाहिदा किश्वर हैं...जहां फै़ज़ थे...हबीब जालिब थे...अहमद फ़राज़ थे...इक़बाल बानो थीं...जहां मलाला है...जहां लगातार एक जंग है कट्टरपंथियों के खिलाफ़...जान पर खेल कर कट्टरपंथ से जंग जैसी हमारे यहां कभी नहीं देखी गई...वो मुल्क जहां बोल और ख़ुदा के लिए जैसी फिल्में बनती हैं...हर 4 साल बाद इमरजेंसी लगती है और लाखों लोग जेल जाने को तैयार हो जाते हैं...
लेकिन हम क्यों समझेंगे...क्यों सोचेंगे...वो काम तो हमने अपने सियासी ठगों और नकली बुद्धिजीवियों पर छोड़ दिया है...छोड़ दिया है दलाल दक्षिणपंथी पत्रकारों और धर्मगुरुओं पर...हम क्यों सोचेंगे कि जब सरकारें सुप्रीम कोर्ट, एक्टिविस्टों और जनता के बीच अपने घोटालों कों लेकर फंसने लगती हैं...तभी क्यों सीमा पर अचानक जवान मर जाते हैं...क्यों दक्षिणपंथी ताक़तों के खिलाफ़ मामले उठते ही कहीं न कहीं ब्लास्ट हो जाता है...आखिर क्यों फ़र्ज़ी एनकाउंटर तक आसानी से कर देने वाली...पूर्वोत्तर में एफ्स्पा का नाजायज़ फ़ायदा उठाने वाली...दुनिया भर में जा कर शानदार काम करने वाली हमारी सेनाएं पाकिस्तानी जवानों से लोहा नहीं ले पातीं....सोचिएगा कि आखिर ये साज़िश क्या है...समझिएगा कि सरहदों की सरगर्मियां सियासत को लहू की खुराक देती हैं...सियासत की सबसे अहम खुराक...बड़ा आसान होता है जंग और अदावत का ज्वार भड़का कर अवाम का ध्यान भटकाना...समझिएगा कि आपके अंदर का कट्टरपंथी क्या पाकिस्तान के नाम पर मुसलमान से तो नफ़रत नहीं कर रहा...अगर करने लगा है तो समझिए कि आपकी ये मियादी देशभक्ति आपको किस ओर ले जा रही है...
दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है इंसान की इंसान से नफ़रत...उस रास्ते पर जा कर कोई इंसान ही नहीं हो सकता है...देशभक्त क्या होगा...पाकिस्तान के बनने के साथ ही दो नए मुल्कों में अदावत की शुरुआत हुई...लेकिन एक और सिलसिला भी शुरु हुआ, जिसे आज़ादी और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति का सिलसिला कहते हैं...14 अगस्त एक ऐतेहासिक तारीख थी, जिसके बाद 15 अगस्त भी आई...और तमाम और मुल्कों को भी आज़ादी मिली...आप चाहें या न चाहें 6 दशकों से फौजी हुक्मरानों, तानाशाहों और कट्टरपंथियों के खिलाफ़ लड़ रही जनता को मैं 14 अगस्त को उनकी आज़ादी और मुल्क की विलादत के दिन बधाई देना चाहता हूं...सलाम करना चाहता हूं फांसी पर चढ़ गए भुट्टो...और ज़ुल्मत को ज़िया कहने के खिलाफ़ तन कर खड़े हो गए हबीब जालिब को...जेल जाने वाले फ़ैज़ को...और जान खतरे में डाल कर भी तालिबान के सामने सिर न झुकाने वाली मलाला को...तमाम उन लोगों को जिनको हम पाकिस्तानी अवाम कहते हैं...जिनके भरोसे पर ये जियाले लड़ते रहे...तमाम सहाफियों को जो तानाशाही के खिलाफ़ कलम को तलवार बना कर लड़ते रहे...तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिनके दम पर लोग कट्टरपंथियों का सामना कर रहे हैं...तमाम दोस्तों को जो जब बात करते हैं और मिलते हैं तो लगता है कि कोई घर का बिछड़ा सदस्य घर लौटा है...मेरा सलाम है लाहौर को...करांची को...रावलपिंडी को...क्वेटा को...हड़प्पा और तक्षशिला को...रावी और चिनाव को...सिंधु को...और हिंदू देवी के नाम से ही अब तक पुकारी जाती सरस्वती को...आपकी नफ़रत को धोती और धिक्कारती ये नदियां जिनके नाम पाकिस्तानी या इस्लामिक नहीं हैं...आज भी पाकिस्तान से बहती हुई हिंदोस्तान में आती हैं...कभी इनके तटों पर कोई ऋषि साधना करता रहा होगा...आज कोई नमाज़ी वुजू करता होगा...लेकिन आज भी खेती इंसान कर रहे हैं...पानी वही है...पाकिस्तान में भी और हिंदुस्तान में भी...सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हमारी आंखों में आज भी उतना ही पानी और ज़ेहन में उतनी ही इंसानियत बची है...सोचिएगा कि क्या इंसानियत नागरिकता की रूह है या फिर नागरिकता इंसानियत का मूल तत्व...सोचते सोचते बस देर मत कर दीजिएगा...पाकिस्तान को रात 12 बजने से पहले आज़ादी के दिन की मुबारकबाद दे दीजिएगा...
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है
(साहिर...)
इंसानियत ज़िंदाबाद...
कभी 15 अगस्त की सुबह आस पास के किसी सरकारी स्कूल में जाता था तो देखता था कि ज़्यादातर शहरी लोग घरों में उस रोज़ छुट्टी मनाते थे...स्कूलों में सिर्फ बच्चे होते थे...15 अगस्त का मतलब शाम की सैर था...लेकिन हां हम सब बहुत बड़े देशभक्त थे...पाकिस्तान के खिलाफ सिर्फ जंग चाहते रहे गोया वहां इंसान ही न रहते हों...
हम को समझना होगा कि दो मुल्कों का बंटवारा एक सियासी फैसला था...जिसके पीछे कुछ सियासी ख्वाहिशें थीं...हम को समझना होगा कि बंटवारा न तो गांधी ने कर दिया था...न ही सिर्फ अंग्रेज़ों ने...और न ही उसके लिए देश में कोई जनमत सर्वेक्षण हुआ था...
ठीक उसी तरह हमको समझना होगा कि बंटवारे के बाद जो दंगे हुए...जो हिंसा अब तक होती आ रही है...जो तनाव है...वो भी सियासी मुआमला है...सियासत ही करवाती आ रही है...जंग से लेकर समझौतों और वार्ताओं तक कभी आम आदमी से वोटिंग तो करवाई नहीं गई कि भई ये कर रहे हैं...तुम क्या कहते हो...
हमको समझना होगा कि रोटी, रोज़गार और रिवाजों के मसायल दोनों ओर हैं...दोनों ही मुल्कों के लोग एक ज़ुबां बोलते हैं...हमारे यहां तो सुनने में भी एक ही है...जिसे वो उर्दू समझते हैं, उसे हम हिंदुस्तानी कहते हैं....लेकिन बाकी दुनिया में भी वो ज़ुबान दरअसल सुनने में एक जैसी न लगते हुए भी एक ही सी है...वही भूख, दर्द, गरीबी, जंग की ज़ुबान...कुल मिला कर आंसुओं की ज़ुबान जिसे बमों और दमन से बंद किया जाता रहा है...फिर आखिर हम कैसे एक नागरिक के तौर पर पाकिस्तान या किसी भी मुल्क के नागरिक से नफ़रत कर सकते हैं...ये जानते हुए भी कि जंग आखिरकार फौजियों की जान और नागरिकों की ज़िंदगी मुश्किल में डालती है हम बार बार जंग का समर्थन करते हैं...आखिर क्यों ये समझना मुश्किल है कि रघुआ और रमज़ानी के हालात ज़्यादा अलग नहीं हैं....अल्पसंख्यक दोनों जगह वैसे ही हालात में हैं..बल्कि हमारे यहां फिर भी बेहतर हालात में...
ज़रा सोच कर देखिए कि हमारी देशभक्ति क्या वाकई हमेशा हमारे साथ रहती है या फिर त्योहारों पर उमड़ आने वाली धार्मिकता की तरह मौके-मौके पर उमड़ती है...क्या देशभक्ति का मतलब सिर्फ पाकिस्तान के खिलाफ वैमनस्य की भावना है...तो फिर उत्तराखंड या उड़ीसा या छत्तीसगढ़ या बंगाल या राजस्थान या आंध्र या मणिपुर की दिक्कतों को लेकर हमारा उदासीन रहना ये हमारे देशद्रोही होने का परिचायक नहीं है...अपने ही मुल्क के लोगों को भूख से तड़पता छोड़ हम पाकिस्तान से अदावत निभा कर आखिर किस तरह की खोखली देशभक्ति को प्रमाणित करते हैं...क्या देश से मुहब्बत किसी और से दुश्मनी है या फिर अपने देश के तकलीफ़शुदा लोगों से मोहब्बत करना है...हम आखिर किस तरह के लोग हैं...क्या 15 अगस्त और 14 अगस्त को पाकिस्तान को गाली बक कर और जॉर्ज पंचम के अभिनंदन में लिखे गए राष्ट्रगान को गाकर हम देशभक्त हो जाएंगे...
पाकिस्तान एक सियासी मजबूरी के साज़िश और फिर गलती में बदल जाने की सबसे बड़ी मिसाल है...आज वहां की अवाम लगातार मज़हबी आधार पर मुल्क बांट लेने की सज़ा भुगत रही है...हम उनसे कहीं बेहतर स्थिति में है फिर वहां के बेगुनाह अवाम के लिए सहानुभूति की जगह अदावत और नफ़रत क्यों...
हम बेहतर हालात में हैं...हम सड़कों पर उतरते हैं...वोट डालते हैं...हमको कोई मज़हबी धमका कर सरकार चुनने या शरिया मानने को बाध्य नहीं कर सकता है...हमसे कोई नहीं कह सकता है कि तुमको मंदिर जाना ही होगा...हमारे यहां कोई तय नहीं करता कि लड़कियां साड़ी या बुरका पहनेंगी ही...हम तमाम मामलों में बेहतर हैं...सोचिए उन लोगों की जो पिछले 65 सालों में आधे दशक के बराबर फ़ौजी हुक़ूमत और मज़हबी पागलों को झेलते रहे...
क्या हम दुश्मनी की आग में पागल हो जाने वाले लोग हैं...फिर हमने क्या ख़ाक दिमागी तरक्की की है...इतने साल बाद हम आज यहीं पहुंचे हैं...क्या हमारे मुल्क में और दिक्कतें मसले नहीं हैं...क्या हमें अपने मुल्क के तमाम हिस्सों में काम करने और उनको भी भूख, गरीबी और पूंजीवादी शोषण से बचाने की ज़रूरत नहीं हैं...क्या वाकई हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत सिर्फ दुश्मनी है...
ज़रा सोच के देखिएगा कि आपने मुल्क के लिए अब तक किया ही क्या है...क्या वो मुसलमान गद्दार हो सकते हैं जो अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और सगे-भाई बहनों के भी पाकिस्तान चले जाने के बावजूद भी अपनी मिट्टी और वतन छोड़ कर नहीं गए...और जो चले गए वो तो हिंदुस्तानी ही नहीं...उनसे क्या नाराज़गी...क्या 47 के दंगों में सिर्फ हिंदू या मुसलमान मरे थे...क्या मुल्क की एकता और इंसानियत नहीं मरे थे...हम आखिर किस तरह के लोग हैं, क्या हम वाकई अपनी अंधी आस्था और मज़हबी पागलपन के आगे कुछ सोचना ही नहीं चाहते...क्या मुल्क वाकई बहुत तरक्की कर चुका है और अब बस तरक्की की आखिरी मंज़िल जंग है...जंग अगर वाकई मसायल का हल होती तो अब तक कश्मीर से लेकर मणिपुर और अमेरिका से इज़रायल तक सब अनसुलझा क्यों है...
हम वो लोग हैं जो सड़क पर दुर्घटना में घायल पड़े आदमी को मरता छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं...लेकिन हम देशप्रेम के नाम पर पाकिस्तान को मटियामेट कर देना चाहते हैं...सच सुनिएगा और भले ही गाली बकते रहिएगा लेकिन वो ये ही है कि पिछले 65 सालों में जम्हूरियत के लिए जो संघर्ष पड़ोसी मुल्क के हमारे भाई-बहनों और साथियों ने किया है...वो हमने नहीं किया...न ही उतनी दिक्कतें झेली हैं...हमको सलाम करना चाहिए उस अवाम को जो गोलियां खाती है...फांसी पर चढ़ती है...तालिबान से लोहा लेती है...जहां नाहिदा किश्वर हैं...जहां फै़ज़ थे...हबीब जालिब थे...अहमद फ़राज़ थे...इक़बाल बानो थीं...जहां मलाला है...जहां लगातार एक जंग है कट्टरपंथियों के खिलाफ़...जान पर खेल कर कट्टरपंथ से जंग जैसी हमारे यहां कभी नहीं देखी गई...वो मुल्क जहां बोल और ख़ुदा के लिए जैसी फिल्में बनती हैं...हर 4 साल बाद इमरजेंसी लगती है और लाखों लोग जेल जाने को तैयार हो जाते हैं...
लेकिन हम क्यों समझेंगे...क्यों सोचेंगे...वो काम तो हमने अपने सियासी ठगों और नकली बुद्धिजीवियों पर छोड़ दिया है...छोड़ दिया है दलाल दक्षिणपंथी पत्रकारों और धर्मगुरुओं पर...हम क्यों सोचेंगे कि जब सरकारें सुप्रीम कोर्ट, एक्टिविस्टों और जनता के बीच अपने घोटालों कों लेकर फंसने लगती हैं...तभी क्यों सीमा पर अचानक जवान मर जाते हैं...क्यों दक्षिणपंथी ताक़तों के खिलाफ़ मामले उठते ही कहीं न कहीं ब्लास्ट हो जाता है...आखिर क्यों फ़र्ज़ी एनकाउंटर तक आसानी से कर देने वाली...पूर्वोत्तर में एफ्स्पा का नाजायज़ फ़ायदा उठाने वाली...दुनिया भर में जा कर शानदार काम करने वाली हमारी सेनाएं पाकिस्तानी जवानों से लोहा नहीं ले पातीं....सोचिएगा कि आखिर ये साज़िश क्या है...समझिएगा कि सरहदों की सरगर्मियां सियासत को लहू की खुराक देती हैं...सियासत की सबसे अहम खुराक...बड़ा आसान होता है जंग और अदावत का ज्वार भड़का कर अवाम का ध्यान भटकाना...समझिएगा कि आपके अंदर का कट्टरपंथी क्या पाकिस्तान के नाम पर मुसलमान से तो नफ़रत नहीं कर रहा...अगर करने लगा है तो समझिए कि आपकी ये मियादी देशभक्ति आपको किस ओर ले जा रही है...
दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है इंसान की इंसान से नफ़रत...उस रास्ते पर जा कर कोई इंसान ही नहीं हो सकता है...देशभक्त क्या होगा...पाकिस्तान के बनने के साथ ही दो नए मुल्कों में अदावत की शुरुआत हुई...लेकिन एक और सिलसिला भी शुरु हुआ, जिसे आज़ादी और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति का सिलसिला कहते हैं...14 अगस्त एक ऐतेहासिक तारीख थी, जिसके बाद 15 अगस्त भी आई...और तमाम और मुल्कों को भी आज़ादी मिली...आप चाहें या न चाहें 6 दशकों से फौजी हुक्मरानों, तानाशाहों और कट्टरपंथियों के खिलाफ़ लड़ रही जनता को मैं 14 अगस्त को उनकी आज़ादी और मुल्क की विलादत के दिन बधाई देना चाहता हूं...सलाम करना चाहता हूं फांसी पर चढ़ गए भुट्टो...और ज़ुल्मत को ज़िया कहने के खिलाफ़ तन कर खड़े हो गए हबीब जालिब को...जेल जाने वाले फ़ैज़ को...और जान खतरे में डाल कर भी तालिबान के सामने सिर न झुकाने वाली मलाला को...तमाम उन लोगों को जिनको हम पाकिस्तानी अवाम कहते हैं...जिनके भरोसे पर ये जियाले लड़ते रहे...तमाम सहाफियों को जो तानाशाही के खिलाफ़ कलम को तलवार बना कर लड़ते रहे...तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जिनके दम पर लोग कट्टरपंथियों का सामना कर रहे हैं...तमाम दोस्तों को जो जब बात करते हैं और मिलते हैं तो लगता है कि कोई घर का बिछड़ा सदस्य घर लौटा है...मेरा सलाम है लाहौर को...करांची को...रावलपिंडी को...क्वेटा को...हड़प्पा और तक्षशिला को...रावी और चिनाव को...सिंधु को...और हिंदू देवी के नाम से ही अब तक पुकारी जाती सरस्वती को...आपकी नफ़रत को धोती और धिक्कारती ये नदियां जिनके नाम पाकिस्तानी या इस्लामिक नहीं हैं...आज भी पाकिस्तान से बहती हुई हिंदोस्तान में आती हैं...कभी इनके तटों पर कोई ऋषि साधना करता रहा होगा...आज कोई नमाज़ी वुजू करता होगा...लेकिन आज भी खेती इंसान कर रहे हैं...पानी वही है...पाकिस्तान में भी और हिंदुस्तान में भी...सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हमारी आंखों में आज भी उतना ही पानी और ज़ेहन में उतनी ही इंसानियत बची है...सोचिएगा कि क्या इंसानियत नागरिकता की रूह है या फिर नागरिकता इंसानियत का मूल तत्व...सोचते सोचते बस देर मत कर दीजिएगा...पाकिस्तान को रात 12 बजने से पहले आज़ादी के दिन की मुबारकबाद दे दीजिएगा...
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है
(साहिर...)
इंसानियत ज़िंदाबाद...
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