मां गूंथ रही है कविता....

(हाल ही में दफ्तर के बाहर की चाय की दुकान पर उस औरत को अपने बच्चों के लिए आटा गूंथते देखा...तो उसमें गिरती पानी की धार के साथ यादें भी भीगती गई....और आटे के साथ कविता भी गुंथती चली गई.....)
पुरानी परात में
अलसाए हाथ से
सफेद आटे में
सधे अंदाज़ में
पानी जा रहा है गिरता
मां गूंथ रही है कविता....
आंखों के आंसू
उसके तन का पसीना
बदल कर उसके
हाथों के स्वाद में
पानी में, आटे में, परात में
जा रहा है मिलता
मां गूंथ रही है कविता...
यादों के संदूक से
एक एक गहना
जो सजाया गया
माथे पर
या नहीं गया पहना
दोबारा गढ़ा जा रहा
दोबारा निखरता
मां गूंथ रही है कविता....
कविता गुंथती
मिलती बनती
वात्सल्य के आटे से
करुणा के पानी से
वक़्त की आंच पर
पक गई है
तो अब
उस पर
बिखर गए हैं
काले धब्बे
चारों ओर छितर गए हैं
उजली रोटी पर
मुझ पर
वक़्त के
फितरत के
स्याह निशान
और इनसे बेखबर
हर रोज़
मां
गूंथ रही है कविता.....

टिप्पणियाँ

  1. वक़्त के
    फितरत के
    स्याह निशान
    और इनसे बेखबर
    हर रोज़
    मां
    गूंथ रही है कविता.....
    बहुत ही भावमय कविता है बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. ज़िन्दगी का स्वाद भी

    माँ का आशिर्वाद भी

    ज़िन्दगी की पौध में


    ये पानी औ'खाद भी

    जवाब देंहटाएं
  3. wah kya baat hai manku maaja aa gaya tabhi to hum aapke fan hai

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट