तुम मेरे आलोक थे....

ये कविता मेरे तात (आलोक तोमर) को समर्पित है...तात आप अजीब सी हालत कर गए हैं...आपसे तमाम बार झगड़ा हुआ, बोलचाल भी बंद हुई और आप बीमार भी पड़े पर ऐसी बदहवासी वाली स्थिति कभी नहीं आई....तमाम लोग जिनको आपके बारे में तमाम भ्रम रहे उनसे मैं कभी लड़ा नहीं क्योंकि वो आपसे कभी मिले ही नहीं थे....तो वो क्या जानते आपके बारे में...मैं लगातार परेशान हूं और सब आपकी गलती है...कई अखबारों और पोर्टलों के कहने के बावजूद आपके लिए कोई लेख लिख पाने में असमर्थ रहा...और अब लिखने बैठा तो ये आलम कि लेख की जगह कविता निकली...पता नहीं कितने दिनों में उबर पाऊंगा...हो सकता है कि कुछ संस्मरण लिख पाऊं...आपको तो याद ही होंगे तात वो सब वाकये...पर ये कविता नई है...सो हर बार की तरह इसे भी आपको ही पहले पढ़वाना है....पर इस बार ये आपके लिए है, आपको समर्पित है...आपसे जो बातें कह न पाया...वो लिख दी हैं....आप से कभी कहा नहीं पर आप मेरे जैसे तमाम लड़ते रहने वालों के लीडर थे, जिसे आप अपनी भाषा में सरगना कहते थे....कविता....

जब वृक्षों ने इंकार किया
छांव देने से
तब तुम सर पर छा गए
जब जब बादलों ने मना किया
बरसने से
तुम गरजते आ गए
लड़खड़ाया जब हौसला
तो संभालने वाले
तुम्हारे हाथ थे
जब सब खड़े थे दूर
तकते तमाशा
तुम ही तो साथ थे
जब वाणी अटक रही थी
कंठ में
मेरी ओर से तुम चिल्लाए थे
जब आंसू बह आए थे
अनायास
तुम मुस्काए थे
तुम्हारे जीवट से
हिम्मत थी मेरी
तुम्हारी मुस्कुराहट से आशाएं
तुम्हारे शब्द
मेरा बाहुबल थे
तुम्हारी कलम मेरी भुजाएं
जीवन के
अनगढ़
अनंत पथ पर
अनगिनत कष्ट थे,
शोक थे
पर सूर्यास्त पर
भय मिटाते
राह दिखाते
तुम मेरे आलोक थे....

(आलोक तोमर की एक पुरानी तस्वीर)

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लिखा है मयंक, आलोक जी जहाँ कहीं भी होंगे पढ़ के मुस्का रहे होंगे।

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  2. आलोक जी के फेसबुक पर लिखने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ. एक इन्तेज़ार है अजीब सा ... जैसे कोई कोई खबर आये. अचानक, और कहे झूठ था वो सब कुछ. मैं तो चिढा रहा था सबको. पता नहीं सच और भ्रम की ये स्थिति कब तक रहेगी. शुक्रिया बंधु, आप हर वो बात कह गए अपनी कविता के माध्यम से जो कई लोग चाह कर भी नहीं कह पाए हैं, अब तक.

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