तुम मेरे आलोक थे....
जब वृक्षों ने इंकार किया
छांव देने से
तब तुम सर पर छा गए
जब जब बादलों ने मना किया
बरसने से
तुम गरजते आ गए
लड़खड़ाया जब हौसला
तो संभालने वाले
तुम्हारे हाथ थे
जब सब खड़े थे दूर
तकते तमाशा
तुम ही तो साथ थे
जब वाणी अटक रही थी
कंठ में
मेरी ओर से तुम चिल्लाए थे
जब आंसू बह आए थे
अनायास
तुम मुस्काए थे
तुम्हारे जीवट से
हिम्मत थी मेरी
तुम्हारी मुस्कुराहट से आशाएं
तुम्हारे शब्द
मेरा बाहुबल थे
तुम्हारी कलम मेरी भुजाएं
जीवन के
अनगढ़
अनंत पथ पर
अनगिनत कष्ट थे,
शोक थे
पर सूर्यास्त पर
भय मिटाते
राह दिखाते
तुम मेरे आलोक थे....
(आलोक तोमर की एक पुरानी तस्वीर)
alok sir ko isse behtar describe nahi kiya ja sakta hai.....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है मयंक, आलोक जी जहाँ कहीं भी होंगे पढ़ के मुस्का रहे होंगे।
जवाब देंहटाएंआलोक जी के फेसबुक पर लिखने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ. एक इन्तेज़ार है अजीब सा ... जैसे कोई कोई खबर आये. अचानक, और कहे झूठ था वो सब कुछ. मैं तो चिढा रहा था सबको. पता नहीं सच और भ्रम की ये स्थिति कब तक रहेगी. शुक्रिया बंधु, आप हर वो बात कह गए अपनी कविता के माध्यम से जो कई लोग चाह कर भी नहीं कह पाए हैं, अब तक.
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