धूमिल की एक और कविता ...प्रजातंत्र
वे घर की दीवारों पर
नारे लिख रहे थे
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं
उन्होंने मेरी पीठ पर
नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे
मंदाग्नि की बीमारी थी और
यह पेट है
मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं-
और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं
धूमिल
न मैं पेट हूं न दीवार हूं न पीठ हूं अब मै विचार हूं।
नारे लिख रहे थे
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं
उन्होंने मेरी पीठ पर
नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे
मंदाग्नि की बीमारी थी और
यह पेट है
मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं-
और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं
धूमिल
न मैं पेट हूं न दीवार हूं न पीठ हूं अब मै विचार हूं।
आभार धूमिल की इस गहरी रचना को पढ़वाने का.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया रचना है बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंमेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं-
और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं
अब मैं विचार युक्त हूँ
जवाब देंहटाएंइसीलिये अब मैं मुक्त हूँ