धूल-गुबार में जंतर मंतर...रंगरंगीला परजातंतर...
उस वक्त तक मैं भूल चुका था कि मैं फिल्म देख रहा हूं, कुछ कुछ ऐसा लगने लगा था कि मैं भी उस भीड़ का हिस्सा हूं जो नत्था के घर के बाहर जुटी हुई थी...अब वो आम ग्रामीण हों...या मीडियावाले...उनमें से कोई एक बन कर मैं कहानी का हिस्सा बनता जा रहा था....शुरुआत में कई घटनाक्रमों पर लगातार हंसता रहा पर एक दृश्य में राकेश अपनी मोटरसाइकिल रोक कर मिट्टी खोदते बूढ़े़ का नाम पूछता है....और जवाब आते ही जैसे शरीर झनझना जाता है...तुरंत गोदान आंखों के सामने से चलती जाती है....किसान से मजदूर हो जाने की व्यथा....और नाम वही जो गोदान के नायक का था...होरी महतो...गाय खरीद कर वैतरणी पार कर जाने की इच्छा कर के जीवन को नर्क बना लेने वाला प्रेमचंद का होरी महतो....लगने लगा था कि अब फिल्म गंभीर हो चली है...और अंदाज़ा सही था...
होरी महतो के घर के बाहर दो चार लोग...राकेश को पता चलता है कि सुबह अपने ही खोदे गड्ढ़े में होरी का शव मिला...राकेश का अंग्रेज़ी चैनल की पत्रकार से पूछ बैठना कि जब सब गरीब हैं तो नत्था क्यों ख़बर है...सब क्यों नहीं...???? नंदिता का जवाब कि क्योंकि नत्था मरने वाला है...और फिर राकेश का सवाल कि होरी महतो तो मर गया उसका क्या.....और नंदिता का जवाब कि तुम अगर ये सब नहीं बर्दाश्त कर सकते तो गलत पेशे में हो....क्या वाकई राकेश जैसे तमाम लोग गलत पेशे में हैं....या पेशा ही गलत हो गया है....
फिल्म पर तमाम बहसें पढ़ रहा हूं...कई लोग अंधभक्त हुए जा रहे हैं तो कई लोग फिल्म को कमज़ोर कह रहे हैं....क्यों आखिर....कहां और क्या कमी है फिल्म में...पीपली लाइव अपने समय का एक गंभीर व्यंग्य है...व्यंग्य जो लोगों को हंसाते हंसाते सवाल छोड़ दे....सोचने को मजबूर कर दे...डार्क सटायर....हां ज़ाहिर है अगर आप किसानों की आत्महत्या पर फिल्म देखने गए छद्म बुद्धिजीवी हैं तो आप निराश होंगे...फिल्म केवल किसानों की बात नहीं करती है...फिल्म में किसान है..गांव है...नेता हैं...मंत्री हैं...मुख्यमंत्री हैं....नौकरशाह हैं...पत्रकार भी हैं और आम लोग भी....पुलिस भी...कुल मिला कर पूरे सिस्टम पर है...तंत्र पर भी और परजातंतर पर भी....कुछ ने कहा कि फिल्म ने किसानों का मज़ाक उड़ाया...वाकई हास्यास्पद है कि कुछ नकली लवोग किसानों पर एक ऐसी फिल्म बनाएं जो केवल अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में दिखे...उसे न तो आम आदमी देख पाए और न ही समझ पाए...तो मज़ाक वो है किसानों के साथ या ये.....हां अगर व्यंग्य की समझ ही नहीं है तो सौ खून माफ़ हैं....
दरअसल पीपली लाइव एक शानदार कोलाज है....एक उपन्यास है जिसके अंक छोटे पर पूरे हैं....कोलाज में देश भर के रंगरंगीले दर्शन होते हैं....और हर एक संवाद अपने आप में मुकम्मल कहानी है उस किरदार की...उस समाज की....वो चाहें हिंदी के पत्रकार कुमार दीपक हों...अंग्रेज़ी की नंदिता....नत्था हों...उसके बड़े भाई...उसकी पत्नी...या पुलिस वाले और नेता....या फिर कानून समझाते नौकरशाह....ज़ाहिर है जिनका भी पेट भरा है सब एक ही से हैं फिर चाहें वो हाई कोर्ट की अनुमति का इंतज़ार करते नौकरशाह हों...मुस्कुरा कर मज़े लेते कृषि मंत्री....राजनैतिक रोटियां सेंकते नेता हों...या गू में ख़बर ढूंढते पत्रकार....पीपली लाइव के हम्माम में सब नंगे दिखे....ज़ाहिर है किसान तो पहले से ही बिना कपड़ों के है....
कुछ लोगों से एक बात और फिल्म का क्रेडिट कृपया आमिर को देना छोड़ें...व्यावसायिक मजबूरी या विनम्रता के चलते सकता है अनुषा और महमूद ये कर रहे हों...पर पीपली पूरी तरह से इन्हीं दोनो की फिल्म है....मीडिया चैनल लोगों को लगातार गुमराह करते रहे...उनको पता था कि फिल्म में सबसे ज़्यादा मज़ाक उन्हीं का उड़ाया गया है पर वो नाटक करते रहे जैसे कुछ पता ही न हो...कहते रहे कि फिल्म किसानों पर है....मीडिया का इतना सटीक चित्रण अभी तक किसी फिल्म में नहीं हुआ....दीपक चौरसिया एक बार ये फिल्म ज़रूर देखें...अगर नहीं देखी है तो....मैंने अब तक ऐसी फिल्म नहीं देखी...शानदार दास्तानगोई अनुषा-महमूद...
हां आखिरी और सबसे ज़रूरी बात कि शायद निर्देशक का मन हम में से ज़्यादातर लोग समझ नहीं पाए....मुझे लगता है कि फिल्म का असली नायक नत्था नहीं था...फिल्म में दो नायक थे...और कहानी की आत्मा को ज़िंदा रखने के लिए दोनो का मरना ज़रूरी था....सो होरी महतो और राकेश दोनो मर गए....कहानी में नायक उसका संदेश होता है और ये ही वो दो थे जो सवाल छोड़ जाते हैं....होरी महतो को तो मरना ही था वो तमाम गांवों में रोज़ मर रहा है.....और राकेश मैं जानता हूं कि तुम असल में नहीं मरे हो...पर पता नहीं क्यों तुम्हारे किरदार की मौत से मैं बेहद दुखी हूं....क्योंकि हमारे बीच से भी तुम काफी पहले ही मर चुके हो....और फिल्म की ही तरह हमें हकीकत में भी नहीं पता है कि तुम मर चुके हो राकेश.....हमें माफ़ कर देना.....
(ये पंक्तियां न तो फिल्म में हैं....न ही ऑडियो ट्रैक में...पर शायद असल लिरिक्स में रहीं थीं...)
ये देखो ये बड़े हुज़ूर...
पकड़ कैमरा खड़े हैं दूर...
मज़े ले रहे हैं भरपूर...
और यहां मैया हमारी मरी जात है....
महंगाई डायन खाए जात है...
-मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com
Ye bhi khoob zabardast vyang hai!Premchand ko padhti rahi hun..filmen kam dekhti hun,jabtak ek dekhne ki tay karti hun...das aur aage khadi ho jati hain!
जवाब देंहटाएंसच दिल से कह रहा हूँ भाई.. बहुत ही उम्दा विश्लेषण किया.. बारीकी से हर पहलू पर नज़र डाली.. मुझे तो एक मित्र ने बताया कि तुम्हारे बारे में किसी ने कुछ कहा है.. पर आपने कहा दीपक चौरसिया पत्रकार के बारे में है :)
जवाब देंहटाएंशब्दशः सहमत ....यह फिल्म सचमुच एक जादुई प्रभाव डालती है दर्शक पर जिसकी तासीर उतरती ही नहीं जल्दी ...
जवाब देंहटाएंयहाँ भी देखें -
http://mishraarvind.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html