नन्ही पुजारन

संकट का वक्त सा दीखता है यह जब मुल्क के तमाम धर्म के ठेकेदारों को आम आदमी को बरगलाते देखता हूँ......कमोबेश पूरे मुल्क का यही हाल है। इन दिनों ब्लॉग जगत में भी कट्टरपंथ की आंधी आई हुई है.....अब लोग लेखक या पत्रकार होने के बजाय हिंदू और मुसलमान हो रहे हैं और ब्लॉग के नाम भी धर्म का कच्चा रंग छोड़ रहे हैं। हालत ऐसे हैं कि ना तो बैठ कर रोने का वक्त बचा है, ना ही सोचने की हमें तमीज रह गई है। मुल्क में भुखमरी, बाढ़ और आतंकवाद के सवालों पर मज़हबी जवाब भारी पड़ रहे हैं। कट्टरपंथ पूरा फन फैलाए खडा है और डसने को तैयार है...... ऐसे में क्या किया जाए ये दुविधा है....क्या वाकई धर्म जनता की अफीम है ?

हाल ही में मशहूर शायर मजाज़ लखनवी की एक नज़्म हाथ लगी सोचा उसे आपके नज़्र कर दूँ ....... शायद पत्थर दिल कुछ पिघलें ( पर उसके लिए भाव समझना होगा, जो शायद हमारी अब आदत नहीं रही !)

नन्ही पुजारन



इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन।

भोर भये मन्दिर आयी है, आई नहीं है माँ लायी है।

वक्त से पहले जाग उठी है, नींद भी आँखों में भरी है।

ठोडी तक लट आयी हुई है, यूँही सी लहराई हुई है।

आँखों में तारों की चमक है, मुखडे पे चाँदी की झलक है।

कैसी सुन्दर है क्या कहिए, नन्ही सी एक सीता कहिए।


धूप चढे तारा चमका है, पत्थर पर एक फूल खिला है।

चाँद का टुकडा, फूल की डाली, कमसिन सीधी भोली-भाली।


कान में चाँदी की बाली है, हाथ में पीतल की थाली है।

दिल में लेकिन ध्यान नहीं है, पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है।


कैसी भोली और सीधी है, मन्दिर की छत देख रही है।

माँ बढकर चुटकी लेती है, चुप चुप सी वो हँस देती है।


हँसना रोना उसका मजहब, उसको पूजा से क्या मतलब।

खुद तो आई है मन्दिर में, मन में उसका है गुडया घर में।


- मजाज़ लखनवी

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