माओवादी (एक लम्बी कविता...)


जंगल उसका घर था
ज़मीन उसकी मां
कल कल करते
झरनों
निर्बाध बहती नदी
पत्तों में सरसराती
हवा के साथ
उसका जीवन भी
सतत
अविरत
प्रवाह मान था

फिर एक दिन...
जंगल
सरकारी हो गए
ज़मीन
कम्पनियों की हो गई
और जल में
घुल गया ज़हर
वो....
बेबस था

************************

सरकारी वर्दी
गांव में आती रही
पिताओं को किया गिरफ्तार
भाईओं को
गोली दी मार...
मां-बहनों का
होता रहा बलात्कार
फिर एक दिन....
बाग़ी भी आए
निशानदेही कर मुखबिरों की
कई सर
उन्होंने भी कमाए
ये सिलसिला चलता रहा
वो....
अब भी बेबस था

***************************

अब आधा जंगल
सरकार का था
आधा बागियों का
कुछ ज़मीन कम्पनियों की थी
कुछ बागियों की
जल में
अब भी ज़हर घुला था
और
खून बह रहा था
गोलियों की गूंज
बमों के धमाकों
बारूद की महक
सनसनाते तीरों के बीच
भटकती मौत के साथ
जीवन
अब भी प्रवाहमान था
पर सतत नहीं
वो...
अब भी बेबस था

************************

फिर एक दिन
पहले खूब शोर मचा
फिर गहरा सन्नाटा छाया
बेहोशी टूटी
तो खुद को
उनके बीच पाया
तब से अब तक
उसके कांधों पर
तरकश-कमान
हाथ में संगीन है
फूल लाल
पत्ते लाल
पानी लाल
लाल ज़मीन है....
सुबह और शाम
लाल हैं...
दोनो ओर के हाथ
दामन लाल हैं...
पर ये सुर्खी खून की है...
निर्दोषों का रक्त
मिल के बह रहा है
दोषियों के खून के साथ
वो कह रहे हैं
देखो आ गया साम्यवाद....
जंगल में कहीं किसी छोर
खड़ा है वो भी
एक ओर...
पर
उतना बेबस नहीं है...

****************************

उसका नाम
किशन
करीम
थॉमस..
जो भी था उसे नहीं याद
नहीं जानता है वो
क्या है माओवाद....
उसने मार्क्स को
नहीं पढ़ा
वो लेनिन को नहीं जानता
दरअसल
वो किसी भी
वाद को नहीं मानता

उसके हाथ में
हथियार है
पर वो पुलिसवाला नहीं
पुलिसवाला नहीं है...
पर उसके तन पर वर्दी है...
उसका अपराध है आदिम होना...
उसने अपराध किया है
पर अपराधी नहीं है...
उसके हाथ में लाल झंडा है
लेकिन
वो हिंसा का आदी नहीं है....
उसने खून तो बहाया है
पर.......
वो माओवादी नहीं है......

मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com

(कभी बस्तर या दंतेवाड़ा गए हैं....या कभी उड़ीसा के माओवाद प्रभावित इलाकों में....माओवादी नेता अगर किसी वजह से आदिवासियों को अपने साथ शामिल कर पा रहे हैं तो उसका केवल एक ही कारण है...आदिवासियों की विवशता...जो सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार...उपेक्षा और शोषण ने उन्हें आज़ादी के बाद से उपहार में दी है....तो अगली बार आदिवासियों के लिए माओवादी शब्द प्रयोग करने से पहले सोचिएगा....उनकी भूख को महसूस करिएगा...उनकी पीड़ा का अहसास करिएगा....दया मत दिखाइएगा....क्योंकि जब ज़रूरत थी हम में से किसी ने वो नहीं दिखाई....)
ये लम्बी कविता....असल में कहीं ज़्यादा लम्बी है...कई सौ सालों का दर्द है इस में....मैं वाकई माओवादी नेताओं के वीभत्स तरीकों का विरोधी हूं....पर उतना ही विरोधी आदिवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन से वंचित कर पूंजीवादियों के हाथ में खेलने वाली सरकार का भी हों.....जब हम अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा बिना चिन्हित किए गए हमलों में आम लोगों के मारे जाने की निंदा करते हैं...तो वैसे ही हमले कैसे अपने देश में होने का समर्थन कर सकते हैं.....


टिप्पणियाँ

  1. Hi mayank, This is very gud that there are people who have found what they go through when people do something like that. But i think with your kavita you should try to influence those people too to leave this kind of act. Even i am not in favour or against these maovadis but they should too understand this is not the way to protest or to get their wishes fulfilled. they are hurting their own people and those who are innocent.

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  3. रजनी आप से मैं सौ फीसदी सहमत हूं....और मैंने स्प्ष्ट किया है अंत में कि मैं माओवादियों के तरीकों के विरोध में हूं....मैं किशन जी जैसे नेताओं को वाद की खुली चुनौती देते हुए उनकी हिंसा का विरोध करता हूं....लेकिन आदिवासियों का विरोध कैसे कर सकता हूं...और आप को लगता है कि उनकी परिस्थितियों में परिवर्तन किए बिना आप उनको समझा सकते हैं कि माओवादी नेता उन्हें कुछ नहीं दे पाएंगे...तो ये सोचना वाकई हास्यास्पद है....वो पिछले 63 साल से देखते आए हैं कि अहिंसक आंदोलनों को कितनी सफलता मिली है...और सरकारें उनके अस्तित्व को लेकर कितनी चिंतित रही हैं....अंडमान में एक पूरी आदिम जाति समाप्त हो गई...सरकार ने क्या किया....अगर वाकई उनको समझाना है तो कार्यों में सच दिखना चाहिए...वादों और नारों में गुंजायमान नहीं....निजी कम्पनियों और सरकार का पूंजीवादी लुटेरा गठजोड़ एक दिन जंगल साफ कर देगा...ज़मीन बंजर कर देगा....और जल को ज़हरीला कर देगा....इससे पहले संभलना होगा....आपको लगता है कि असंतोष केवल जंगलों में है...शहरों में भी है...और कहीं वो भी सर से ऊपर गया तो फूटेगा...बिना व्यवस्था बदले किसको किसको और कैसे समझाएंगे हम....???
    क्षमा चाहूंगा अगर थोड़ कड़वा बोला हो...पर सच इससे भी ज़्यादा कड़वा है....क्या किया जाए...हम बंद कमरों में बैठ कर जितनी चिंता देश की कर सकते हैं...वो न तो हकीकत के करीब होती है...और न ही तर्क के मुताबिक....

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  4. अच्छी कविता जो कुछ सोचने को मजबूर कर रही है /अच्छी सामाजिक सोच को पूरी तरह ब्लॉग पर उतारती हुई इस रचना के लिए धन्यवाद / नक्सलवाद को विचार तो नहीं कहा जा सकता लेकिन भ्रष्ट नेताओं के क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर कहा जा सकता है / IPL ने BPL की मुश्किलें और बढ़ा दी है / थरूर जैसे और भी कई मंत्री हैं जिनके इस्तीफे की देश को अविलम्ब जरूरत है / इस देश में कानून और व्यवस्था को सुधारने के लिए ,पूरे देश को एक जुट होकर सत्यमेव जयते की रक्षा के लिए, सर पर कफ़न बांधना होगा /ऐसे ही प्रस्तुती और सोच से ब्लॉग की सार्थकता बढ़ेगी / आशा है आप भविष्य में भी ब्लॉग की सार्थकता को बढाकर,उसे एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित करने में,अपना बहुमूल्य व सक्रिय योगदान देते रहेंगे / आप देश हित में हमारे ब्लॉग के इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर पधारकर १०० शब्दों में अपना बहुमूल्य विचार भी जरूर व्यक्त करें / विचार और टिप्पणियां ही ब्लॉग की ताकत है / हमने उम्दा विचारों को सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / इस हफ्ते उम्दा विचार के लिए अजित गुप्ता जी सम्मानित की गयी हैं

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  5. बहुत अच्छी कविता या यूँ कहें कि शायद ज़िन्दगी का एक आईना लिये घूम रहे हैं आप.
    यह वाकई सोचने की ज़रूरत है कि अगर हालात नही सुधरे तो यह सब बढता ही ज़ायेगा.

    कारण का निवारण होना चाहिये

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  6. ajeeb vidambana aur kinkartavyavimoodhta ki sthiti hai.... wo saath unka de rahe hain aur wo maang sarkar se rahe hain....


    Phir bhi......... udwelit to karti hi hai

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  7. बेबसी की पूरी बस ही भर दी

    और रंग कर दिया लाल लाल

    कविता करती चल रही कमाल

    दिखला रही है मन के रंग
    कर रही है सच्‍चाईयों से मालामाल।

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