क्रन्तिकारी का अवसान ....
देश में नक्सलवादी आन्दोलन ने कई तरह के प्रभाव पैदा किए ..... कुछ अच्छे - कुछ बुरे और कुछ समझ से परे ! इन्ही प्रभावों के फलस्वरूप कुछ साहित्य भी उपजा जिसमे आम आदमी ..... गरीब आदमी की हताशा और दुःख से उपजा विद्रोह गीत था .... तंत्र के ख़िलाफ़ गुस्सा और रोष का संगीत था !
इस दौरान इस हवा ने कई क्रांतिकारी कवि पैदा किए, उन्ही में से एक और सबसे अलग कवि हुए वेणुगोपाल ....जिस दौर में नक्सल आन्दोलन उपजा और तब से अब तक वेणुगोपाल ने कम लिखा पर जो लिखा उसे पढ़ना किसी भी विद्रोही कवि या व्यक्ति के लिए ज़रूरी है
कवि वेणुगोपाल का सोमवार देर रात निधन हो गया। वह 65 वर्ष के थे और कैंसर से पीडित थे। 22 अक्टूबर 1942 को आंध्र प्रदेश के करीमनगर में जन्मे वेणुगोपाल का मूल नाम नंद किशोर शर्मा था और वह देश में नक्सलवादी आंदोलन से उभरे हिंदी के प्रमुख क्रांतिकारी कवियों में से थे। उन्होंने दो शादियां की थीं और उनके एक पुत्र और तीन पुत्रियां हैं। वेणुगोपाल के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे, जिनमें वे हाथ होते-1972, हवायें चुप नहीं रहती-1980 और चट्टानों का जलगीत-1980। इसके अलावा उन्होंने काम सौंदर्य शास्त्रों की भूमिका शीर्षक से एक शोध ग्रंथ भी लिखा था।
वेणुगोपाल ने प्रमुख रंगकर्मी बब कारंत के नाटकों का निर्देशन भी किया था और उनमें अभिनय भी किया था। वह हैदराबाद में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता करते थे।
उनके बारे में ज़्यादा कहने से बेहतर होगा की आपको उनकी रचना पढ़वा दूँ ..... पढे और सोचें ...
ख़तरे
ख़तरे पारदर्शी होते हैं।
ख़ूबसूरत।
अपने पार भविष्य दिखाते हुए।
जैसे छोटे से गुदाज बदन वाली बच्ची
किसी जंगली जानवर का मुखौटा लगाए
धम्म से आ कूदे हमारे आगे
और हम डरें नहीं।
बल्कि देख लेंउसके बचपन के पार
एक जवान खुशी
और गोद में उठा लें उसे।
ऐसे ही कुछ होते हैं ख़तरे।
अगर डरें तो ख़तरे
और अगर नहीं
तो भविष्य दिखाते रंगीन पारदर्शी शीशे के टुकड़े।
और सुबह है
हम
सूरज के भरोसे मारे गए
और
सूरज घड़ी के।
जो बंद इसलिए पड़ी है
कि
हम चाबी लगाना भूल गए थे
और
सुबह है
कि
हो ही नहीं पा रही है।
अंधेरा मेरे लिए
रहती है रोशनी
लेकिन दिखता है अंधेरा
तो
कसूर
अंधेरे का तो नहीं हुआ न!
और
न रोशनी का!
किसका कसूर?
जानने के लिए
आईना भी कैसे देखूं
कि अंधेरा जो है
मेरे लिए
रोशनी के बावजूद!
कवि वेणुगोपाल को श्रृद्धांजलि!! कविताऐं बहुत अच्छी लगीं. आभार.
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