मकडियां
सन्नाटे के शोर से
कानो को पकड़
दांतों को भींचता
सामने के
भयानक दृश्य
देख न पाने की हालत में
आंखों को मींचता
इधर उधर
हर तरफ़ ....
जहाँ देखो
या न देखो
सब कहीं झूठ ....
धोखा
लोग होते जाते
और और और
मक्कार
सब हैं अय्यार
अंधेरे में
पूरे बदन पर
रेंगती हैं फंसाने को
शिकार बनाने को
जाल बुनती हैं
हजारों मकडियां
दरो दीवारों पर ......
दिलो की दीवारों पर !
wht a thought.
जवाब देंहटाएंit's on aim.
keep it on
Rakesh Kaushik
bhut sahi. veri nice. jari rhe.
जवाब देंहटाएंमयंक जी
जवाब देंहटाएंबहुत असर दार शब्दों से सुंदर रचना की है आपने...वाह...
नीरज
गहरी रचना!!
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