शहर, खिड़की और लोग - 2 (श्रृंखला)
मुझसे किसी ने पूछा कि ये कहानी है? मैंने सिर्फ ये ही कहा कि ये कहानी नहीं है, क्योंकि ये कहानी की साहित्यिक विधा के अंतर्गत नहीं आती है..लेकिन ये हम सबकी कहानियां हैं...बिना किसी संवाद के...लेखक सब किरदारों में खुद जीता-मरता है और इसलिए किसी और से नहीं, ख़ुद से संवाद करता है...ये सारे टुकड़े, उन खिड़कियों के टुकड़े हैं. जिनसे लेखक, आपके ज़रिए, अपने अंदर भी झांकता है...अपने ज़रिए, आपको भी आपके अंदर झांकने के लिए प्रेरित करना चाहता है...क्योंकि अपने अंदर बिना झांके, आप किसी और के अंदर भी नहीं झांक सकते हैं...ये खिड़कियां शहर के शरीर पर घोंप की गई इमारतों पर ज़रूर पैबंद सी लगी हैं...पर इनके ज़रिए हमको लोगों के अंदर झांकना है...शहर और कुछ नहीं, लोग ही तो हैं...
- लेखक
- लेखक
इन खिड़कियों में वो एक खिड़की है, जहां मैंने कभी बत्ती बुझती नहीं देखी। एक आदमी है, जो रात भर खिड़की के पास बैठा रहता है। वो खिड़की से बाहर नहीं झांकता, एक टीवी है जो बाहर झांकता है...
उसकी आंखें, यहां से नहीं दिखती हैं...उसकी सिगरेट की चिंगारी दहकती है, रात को और लाल हो कर...एक रोज़ ट्यूबलाइट जलते-जलते अचानक बुझ गई...उसकी बेचैनी मैं अभी भी ठीक से याद कर पा रहा हूं....वो रात भर खिड़की पर खड़ा था, अपनी आदत के ख़िलाफ़ और एक के बाद एक सिगरेट पीता जा रहा था...
सुबह अक्सर 7 बजे वह चाय का कप लिए दिखता है, खिड़की पर खड़ा चाय और सिगरेट पीता...उसके हाथ में हमेशा कोई न कोई किताब होती है...वो यक़ीनन उसकी इस हालत का सबब किताबें भी होंगी ही...जॉन एलिया शायद ऐसे ही लोगों को देख कर 'रम्ज़' जैसी नज़्म कहते रहे होंगे...उसकी किसी किताब का नाम यहां से दिखाई नहीं देता...लेकिन दो बार कवर देख कर मैं किताब पहचान गया हूं...एक बार डिस्ग्रेस्ड और एक बार मीन केम्फ़...
अजीब सा है न...डिस्ग्रेस्ड पढ़ने वाला मीन केम्फ़ भी पढ़े...पर दरअसल दोनों ही उतने ही अकेले भी तो हैं...हिटलर क्या ऐसे ही हिटलर हुआ होगा...और क्या गारंटी है कि ये खिड़की वाला आदमी कभी हिटलर नहीं हो जाएगा...
उसका टीवी दिन भर औऱ रात भर चलता है...जबकि वो कभी टीवी देखता नहीं है...उसके कमरे में एक ओर एक पंचिंग बैग लटका है...मुझे ठीक-ठीक अंदाज़ा है कि वह बॉक्सर नहीं है...फिर वो पंचिंग बैग क्यों?? ज़रूर इसलिए क्योंकि कोई और नहीं है, जिस पर गुस्सा उतारा जा सके...और पंचिंग बैग आपको लिपटकर रोने से भी मना तो नहीं करेगा न...
हालांकि मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा और न ही पंचिंग बैग पर घूंसे चलाते...लेकिन यक़ीनन वो जिस्मानी या ज़ेहनी तौर पर ऐसा करता तो होगा ही...देखा तो मैंने उसको खाना खाते भी नहीं...पर खाना खाता ही होगा...
उसके घर सिर्फ एक औरत आती है...घर पर काम करने के लिए...वह सुबह 7 बजे खिड़की पर खड़ा चाय पीता रहता है...वह महिला आती है...घर साफ करती है...जाले उतारती है...कई बार ठीक उसके बगल में खड़ी हो कर चाय पी लेती है, कपड़े सुखाती है...लेकिन मैंने कभी उन दोनों को बात करते नहीं देखा...ये भी हो सकता है कि उनको एक-दूसरे को समझने के लिए बात करने की ज़रूरत ही न पड़ती हो...या फिर दोनों में इसी शर्त पर समझौता हो कि दोनों एक दूसरे से कुछ कहेंगे नहीं...जिससे कभी कुछ पूछने की नौबत न आए...ये भी एक रिश्ता है...जो बचा रहता है, क्योंकि कुछ कहा या कुछ पूछा नहीं जाता...कभी भी नहीं...
उसकी आंखें, यहां से नहीं दिखती हैं...उसकी सिगरेट की चिंगारी दहकती है, रात को और लाल हो कर...एक रोज़ ट्यूबलाइट जलते-जलते अचानक बुझ गई...उसकी बेचैनी मैं अभी भी ठीक से याद कर पा रहा हूं....वो रात भर खिड़की पर खड़ा था, अपनी आदत के ख़िलाफ़ और एक के बाद एक सिगरेट पीता जा रहा था...
सुबह अक्सर 7 बजे वह चाय का कप लिए दिखता है, खिड़की पर खड़ा चाय और सिगरेट पीता...उसके हाथ में हमेशा कोई न कोई किताब होती है...वो यक़ीनन उसकी इस हालत का सबब किताबें भी होंगी ही...जॉन एलिया शायद ऐसे ही लोगों को देख कर 'रम्ज़' जैसी नज़्म कहते रहे होंगे...उसकी किसी किताब का नाम यहां से दिखाई नहीं देता...लेकिन दो बार कवर देख कर मैं किताब पहचान गया हूं...एक बार डिस्ग्रेस्ड और एक बार मीन केम्फ़...
अजीब सा है न...डिस्ग्रेस्ड पढ़ने वाला मीन केम्फ़ भी पढ़े...पर दरअसल दोनों ही उतने ही अकेले भी तो हैं...हिटलर क्या ऐसे ही हिटलर हुआ होगा...और क्या गारंटी है कि ये खिड़की वाला आदमी कभी हिटलर नहीं हो जाएगा...
उसका टीवी दिन भर औऱ रात भर चलता है...जबकि वो कभी टीवी देखता नहीं है...उसके कमरे में एक ओर एक पंचिंग बैग लटका है...मुझे ठीक-ठीक अंदाज़ा है कि वह बॉक्सर नहीं है...फिर वो पंचिंग बैग क्यों?? ज़रूर इसलिए क्योंकि कोई और नहीं है, जिस पर गुस्सा उतारा जा सके...और पंचिंग बैग आपको लिपटकर रोने से भी मना तो नहीं करेगा न...
हालांकि मैंने उसे कभी रोते नहीं देखा और न ही पंचिंग बैग पर घूंसे चलाते...लेकिन यक़ीनन वो जिस्मानी या ज़ेहनी तौर पर ऐसा करता तो होगा ही...देखा तो मैंने उसको खाना खाते भी नहीं...पर खाना खाता ही होगा...
उसके घर सिर्फ एक औरत आती है...घर पर काम करने के लिए...वह सुबह 7 बजे खिड़की पर खड़ा चाय पीता रहता है...वह महिला आती है...घर साफ करती है...जाले उतारती है...कई बार ठीक उसके बगल में खड़ी हो कर चाय पी लेती है, कपड़े सुखाती है...लेकिन मैंने कभी उन दोनों को बात करते नहीं देखा...ये भी हो सकता है कि उनको एक-दूसरे को समझने के लिए बात करने की ज़रूरत ही न पड़ती हो...या फिर दोनों में इसी शर्त पर समझौता हो कि दोनों एक दूसरे से कुछ कहेंगे नहीं...जिससे कभी कुछ पूछने की नौबत न आए...ये भी एक रिश्ता है...जो बचा रहता है, क्योंकि कुछ कहा या कुछ पूछा नहीं जाता...कभी भी नहीं...
शाम को अंधेरा होने से पहले ही ट्यूबलाइट जल जाती है...वह हाथ में एक पैग लिए होता है...एक सिगरेट...पैग हटता है तो किताब आ जाती है...सिगरेट एक हाथ का स्थायी भाव है...ठीक वैसे ही, जैसे जीवन का स्थायी भाव दुख होता है...दुख मनुष्य को स्थिरता देता है, अपने में से उसके हिस्से की स्थिरता...कभी ग़ौर से देखिएगा, हमेशा खुश रहने वाले या ऐसी कोशिश करने वाले (दोनों एक ही हैं) कितने अस्थिर होते हैं...और अंदर से कितने खोखले...सिगरेट भी शरीर को खोखला करती है...ऐसा डॉक्टर्स कहते हैं...कोई डॉक्टर खुशी ढूंढने से होने वाले नुकसानों के बारे में नहीं बताता है...क्या वो सब चाहते हैं कि हम सब अंदर से खोखले रहें...आज सुबह वो खिड़की पर नहीं था...मैं परेशान सा हो गया...मैं खिड़की पर खड़ा रहा...झांकता रहा दूर...मुझे राहत बस ये थी कि टीवी चल रहा था...फिर 7.30 वो आया...मुझे राहत मिल गई...उसने सिर उठाया और मुझे देखने लगा...मैं अपनी चाय ले आया...हम दोनों एक-दूसरे को देर तक देखते रहे और समझ गए कि हम आईना ही देख रहे हैं शायद...पीछे उसके कमरे में टीवी लगातार चल रहा था...
हम सब टीवी ही तो हैं...लगातार चल रहे हैं...हम बोल रहे हैं...कह रहे हैं...पर उनमें से कोई भी बात हमारी खुद की नहीं है...हम दूसरों का कहा सुनाते रहने वाले टीवी हैं...और हमको शिकायत है कि हम पर कोई यकीन नहीं करता...जबकि हमें ख़ुद अपने ऊपर उतना ही यक़ीन है, जितना हमें ईश्वर पर है...शून्य से थोड़ा सा कम...हां, हम सब टीवी हो चले हैं...
हम सब टीवी ही तो हैं...लगातार चल रहे हैं...हम बोल रहे हैं...कह रहे हैं...पर उनमें से कोई भी बात हमारी खुद की नहीं है...हम दूसरों का कहा सुनाते रहने वाले टीवी हैं...और हमको शिकायत है कि हम पर कोई यकीन नहीं करता...जबकि हमें ख़ुद अपने ऊपर उतना ही यक़ीन है, जितना हमें ईश्वर पर है...शून्य से थोड़ा सा कम...हां, हम सब टीवी हो चले हैं...
ये इस श्रृंखला की अब तक कि सबसे उदास कर देने वाली कड़ी है।
जवाब देंहटाएं