शहर, खिड़की और लोग - 3 (रसोई और औरत, क़त्ल और प्रेम)

शहर, खिड़की और लोग की ये तीसरी किस्त है, ठीक वैसे ही जैसे कि लोन की तीसरी किस्त चुकाते हुए आपको अहसास होने लगता है कि आप कर्ज़ में दब गए हैं...पहली किस्त लोन की खुशी की होती है...दूसरी किस्त में सपना पूरा होने का भ्रम होता है...तीसरी किस्त में आप पहली बार ख़ुद को दिलासा देना शुरु करते हैं कि सपनों के लिए कुछ तो कीमत चुकानी होगी...तीसरी किस्त तक लेखक कीमत चुकाने के अहसास से भारी होने लगा है...कीमत चुकानी होगी, किरदारों में ढलने की और ये किरदार वो है, जो लेखक को हर शब्द के साथ शर्मसार करने लगता है...क्यों, इसको बताना भी बहुत भारी है...उस किस्त की तरह, जो लेट जाती है...जुर्माने के साथ...
(लेखक)

एक खिड़की में रसोई है शायद...वो ठीक सामने की ओर, सबसे ऊपर है...उसमें रात को अचानक 1 बजे बत्ती जलती है...ऐसा लगता है कि जब रात सबसे ज़्यादा गहरी हो, कोई रोशनी लाने की ज़िद करके उसे हासिल ही कर ले...उस वक्त आस-पास की की हर खिड़की में अंधेरा होता है...इसलिए वो अलग दिखाई देती है...पीछे से बूढ़ी औरत के घर में बज रहे पुराने गानों के बीच, अचानक वो महिला आती है और हर रोज़ बर्तन धोने लगती है...
उसको दाएं हाथ से पसीना पोंछते देखता हूं तो पहले मुंबई की उमस याद आती है...और फिर सोचता हूं कि बात मुंबई की उमस की है या किसी ज़िंदगी की उमस की...कई बार वो पीछे मुड़कर कुछ कहती सा है, लगता है कि ज़रूर किसी ने पीछे से आवाज़ दी होगी...अमूमन वह जवाब देकर वापस अपने काम में लग जाती है...कितनी ही बार होता है न कि हम पीछे मुड़कर बस जवाब भर देखते हैं...हम इतना आगे आ चुके होते हैं या इतना अंधेरा रह जाता है पीछे कि कोई दिखता नहीं है...हम शून्य में एक जवाब उछाल देते हैं और आगे चल देते हैं...
उसके माथे से इतना पसीना आ रहा होता है कि वह जितनी बार बर्तन घिसती है, उतनी ही बार पसीना भी पोंछती है...ज़िंदगी ऐसी ही है, जितनी बार आप आगे बढ़ते हैं, उतनी ही बार आपको रोक लेती है...पसीना हो या उमस या फिर कोई और बदबूदार चिपचिपाहट...कई बार उसे अनेक बार पीछे मुड़कर जवाब देना होता है...वह कभी अचानक बर्तन पटकती है और बगल में से कोई सामान लेकर अंदर जाती है और गुस्से में वापस लौटती है...
संदर्भ चित्र

हर बार जब वो अंदर जाती है, मैं सोचता हूं कि वह अंदर से खून से सना चाकू लेकर लौटेगी...पर वह पसीने से सना जिस्म लेकर लौटती है...मैं चिंता को गुस्से, गुस्से को आक्रोश...आक्रोश को ख़ौफ़ और फिर ख़ौफ़ की खीझ में बदलते देखता हूं...मैं हैरान होता हूं कि सुबह 7 बजे यही औरत मुझे रसोई में दिखाई देगी...और ये किसी को क़त्ल नहीं कर रही है...मुझे अच्छी तरह अंदाज़ा है कि बची रात भी वह सो नहीं पाती होगी...उसे न जाने क्या-क्या याद आता होगा...क्या क्या चिंताएं सताती होंगी...
उसको मैंने अमूमन तीसरी साड़ी में नहीं देखा...तीसरी साड़ी होगी तो ज़रूर उसके पास...तो फिर क्या उसे मन नहीं करता होगा पहनने का...या उसे पता ही न हो कि कोई कम से कम एक कोई उसे देख रहा है, हर रोज़...कोई आपको देख ही नहीं रहा...ये किसी के लिए कितनी बड़ी निश्चिंतता हो सकती है...और किसी के लिए कितनी बड़ी निराशा...हम निराशा और निश्चिंतता के दोनों आयामों को कितना अलग देखते हैं, जो कितना अलग हैं...जैसे अकेले होना किसी के लिए निश्चिंतता है और किसी के लिए निराशा...लेखक के लिए दोनों है और दोनों ही उसके लिए मृत्यु की ओर एक कदम और है...
वो कल जब आई तो उसके बाल खुले थे...वो अमूमन गर्मी से परेशान हो कर बाल बांध लेती होगी...मुझे वो दूर से खुले बालों में ख़ूबसूरत लग सकती है...उसके लिए खुले बाल थोड़ी देर में मुसीबत हो जाएंगे...वो हर रोज़ बाल कटा देना चाहती होगी...उसे नहीं लगता है कि ये किसी को ख़ूबसूरत लग रहे होंगे...उसे पता भी होगा तो वह क्या करेगी इस बात का...इसको न तो बर्तन घिसने में इस्तेमाल किया जा सकता है और न ही क़त्ल कर देने में...दो काम, जिनमें से एक वो करती ही जा रही है...और एक कब से कर लेना चाहती है...
मैं चाहता हूं कि किसी दोपहर जा कर, बर्तन धोने या खाना पकाने में उसकी मदद कर दूं...लेकिन इससे एक संभावना है...कि उसे अर्से बाद प्रेम का अहसास हो जाए...और प्रेम देना, लेखक के वश के बाहर की बात है...जो प्रेम लिख सकता है...वह प्रेम दे कर खाली हो चुका होता है..जो प्रेम दे सकता है...वह प्रेम लिख नहीं सकता...प्रेम लिखना और प्रेम देना, दोनों उसके लिए अभी एक संभावना है...और इसलिए बेहतर है कि ये बत्ती जलती रहे और संभावना बनी रहे...किसी लेखक के लिए नहीं...उस किरदार के लिए...जो क़त्ल करने और बर्तन धोने के बीच एक ओर अभी झुका है...और किसी भी रोज़ दूसरी ओर उसे न झुकने दिया जाए...

- मयंक 

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