गाना सुनते हुए मर जाती हैं बूढ़ी औरतें... (शहर, खिड़की और लोग – 6)
शहर, खिड़की और लोग की ये सबसे लम्बी किस्त है...ये किस्त इससे भी लम्बी हो सकती थी...पर इसे और किरदार को यहीं ख़त्म कर देना सही लगा...लेखक कितनी बार और कितनी देर मर सकता है, इसकी परीक्षा न लेना ही सही है...वैसे हर किस्त इतनी ही या इससे भी ज़्यादा लम्बी हो सकती थी...लेकिन किरदार से बाहर आने का वक्त हमेशा बहुत ज़्यादा नहीं लिया जा सकता है...शहर, खिड़की और लोग, किताब के तौर पर भी आएगा...और उस वक्त ज़ाहिर है कि ये ब्लॉग से हटाया जाएगा...हम सब ऐसे ही तो हैं...हमारी खिड़कियां, कभी होती हैं और कभी दीवार में बदल जाती हैं...हर खिड़की अपने आप में एक दीवार भी है...हां, हर दीवार खिड़की नहीं हो सकती है...मैं मुआफ़ी चाहता हूं कि लम्बी कहानी में लम्बी भूमिका लिख रहा हूं...इसी मुआफ़ी के साथ मैं भूमिका ख़त्म करता हूं...हमें ज़रूरत है कि हम उस बूढ़ी औरत से मिलें, जिससे मैं भी कभी नहीं मिला...
- लेखक
उस
खिड़की पर अंधेरा रहता है...दिन में भी...उस खिड़की की रोशनी, वहां से
आने वाला संगीत है...शायद उस बूढ़ी औरत की रोशनी भी वही है...ये तय है कि उसे
रोशनी से तकलीफ़ है...डर है...और अंधेरे में भी शायद वह गानों के बिना जी नहीं
सकती..गोया मैं डरता रहा कि जिस दिन ये गाने बंद हो जाएंगे, वह घर
में मरी पड़ी मिलेगी...
उस खिड़की
से मुझे हमेशा एक औरत दिखाई दी, जिसको मैं कभी ठीक
से नहीं देख पाया...वो औरत है, ये पता था क्योंकि
उसके पैर दिखाई देते थे, जिनसे साड़ी उठा कर, वह
मालिश किया करती थी...उसके हाथ दिखाई देते थे, जिनमें झुर्रियों के
बीच चमकीला नेलपेंट दूर से दिखता था...उसकी पीठ पर लटकती डाई किए गए बालों के बीच
की सफेदी और एक पुराने ज़माने का हेयर पिन चमकता था...सबसे बढ़ कर, वह
बेइंतिहा उदास गाने सुनती थी...जो रात भर अंधेरे में चमकते थे और सन्नाटे का शोर
छुपा देते थे...वो पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने थे, जो इतने उदास और इस कदर रोशन
थे कि वह महिला ही हो सकती थी...
हर रात मैं
11 बजे के बाद इंतज़ार करता था कि उस खिड़की से गीतों की रोशनी
छन कर बाहर आने लगे। मैं ये इंतज़ार करने लगा था, ये मुझे भी कई दिनों बाद पता
चला, जब मैंने अपने आप को एक ऐसा पुराना गीत गुनगुनाते हुए पाया, जो मुझे कभी याद
नहीं था। मुझे हैरानी हुई कि ये गीत मुझे याद कब हुआ और फिर रात को खिड़की से छन
कर जब वही गीत बाहर आया, तो मैं स्तब्ध था कि आखिर मैं कितने दिनों से ये गीत सुन
रहा हूं...
सुबह के
3 बजे हैं...खिड़की पर एक गीत ख़त्म होता है...
नज़ारे
अपनी मस्तियां
लुटा-लुटा
के सो गए
सितारे
अपनी रोशनी
दिखा-दिखा
के सो गए
हर एक
शमा जल चुकी
न जाने
तुम कब आओगे....
सुहानी
रात ढल चुकी...
न जाने
तुम कब आओगे...
खिड़की
में गीत बदलता है, अगले गीत के पहले मीना कुमारी की आवाज़ में, उनकी ही नज़्म का
एक हिस्सा है...
ये नूर कैसा है
राख का सा रंग पहने
बर्फ कि लाश है
लावे का सा बदन ओढ़े
गूंगी चाहत है
रुसवाई का कफ़न पहने
हर एक कतरा मुक़द्दस है मैले आंसू का
एक हुजूमे अपाहिज है आबे-कौसर पर
यह कैसा शोर है जो बेआवाज़ फैला है
रुपहली छांव में बदनामियों का डेरा है
यह कैसी जन्नत है जो चौंक चौंक जाती है
एक इन्तजारे-मुजस्सम का नाम -ख़ामोशी
और एहसासे-बेकराँ पे यह सरहद कैसी?
दर-ओ-दीवार कहाँ रूह कि आवारगी के
नूर कि वादी तलक लम्स का इक सफरे-तवील
हर एक मोड़ पे बस दो ही नाम मिलते हैं
मौत कह लो - जो मोहब्बत नहीं कहने पाओ
......मैं
कांप सा जाता हूं...कौन है, मेरे अलावा...जो मीना कुमारी को सुबह 3 बजे सुनना
चाहता है...सुन रहा है...वो भी ये...और उतनी देर में मीना कुमारी की ही आवाज़ में,
उनकी ही ग़ज़ल बज उठती है...अचानक से आवाज़ और ज़्यादा साफ़ हो
जाती है लेकिन और दूर से आती सुनाई देने लगती है...जैसे रेगिस्तान में कोई मुसाफिर
रात को दूर से गाता हो...और दूर तक सुनाई देता हो...हम सब अपनी ख्वाहिशों के
रेगिस्तान में ही तो भटकते हैं...
बहती
हुई ये नदिया
घुलते
हुए किनारे
कोई तो
पार उतरे
कोई तो
पार गुज़रे
मैं
खिड़की पर जा खड़ा हो गया हूं और अचानक खिड़की की लाइट जल उठती है...नहीं ये
रोशनी, गीतों की रोशनी से कम है...जबकि गीत जुगनू हैं, फिर भी? मैं हैरान हो कर ध्यान से उधर देखता
हूं, मीना कुमारी के साथ एक और आवाज़ सुनाई देती है...हां, वो गा रही है...
यूं
तेरी रहग़ुज़र से
दीवानावार
गुज़रे
कांधे
पे अपने रख के
अपना
मज़ार गुज़रे
एक साया
दिखता है, जबकि रोशनी बेहद साफ है...वो उठता है, चलता है, दीवार के पास जा कर खड़ा
हो जाता है...एक पुरानी अल्मारी के खुलने की आवाज़ आती है...लोहे की
अल्मारी...जबकि इस शहर में समुद्री हवा की नमी के चलते, लोहे की अल्मारी रखने का
रिवाज नहीं है...तो कौन है, जो लोहे की अल्मारी रखता है...वो अल्मारी किस कदर ज़ंग
खाई होगी कि यहां तक आवाज़ चली आ रही है...एक मिनट..... .... ...... .... उसकी भी
तो आवाज़ यहां तक आ रही है...किस कदर ज़ंग खाई होगी ... ... कि यहां तक
उसके गाने की आवाज़.......
उसके
हाथ दिखते हैं, वह खिड़की के ही पास खड़ी है...हाथों में एक पुरानी डायरी है,
जिससे कुछ काग़ज़ गिरने वाले हैं और वह डायरी हाथ में लिए, गा रही है....नई ग़ज़ल
बजने लगी है...
जलती-बुझती-सी रोशनी के परे
हमने एक रात ऐसे पाई थी
रूह को दांत से जिसने काटा था
जिस्म से प्यार करने आई थी
कौन है वो...उसकी
उम्र के हिसाब से वह मेरी मां भी हो सकती है...मेरी पुरानी टीचर भी...मुझे अपनी मां से भी प्यार है और अपनी टीचर से भी प्यार हुआ था...मेरी उम्र के हिसाब से वह मेरी महबूबा भी हो
सकती है, अगर वह इजाज़त दे...मुझे किशोरी अमोनकर से आज भी किसी नौजवान लड़के की
लड़की से होने वाली जैसी ही मुहब्बत है...जिस वजह से मैं उनके इंतक़ाल के बाद,
उनके घर के पास मौजूद होते हुए भी नहीं जा सका...या जैसे मैं जब भी आशा भोंसले को
सुनता हूं, तो मुझे लगता है कि मैं 70 साल का हूं और मैं जवानी में वहीदा रहमान से
निकाह कर लेना चाहता था...जबकि मेरी उम्र असल में केवल 35 साल ही है...आप इस बात
को समझ पा रहे हैं या नहीं, ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप उस रात, उसको
खिड़की पर खड़ा देख और देख से ज़्यादा सुन पा रहे थे या नहीं...
जिसके होंठों की सुर्खी छूते ही
आग-सी तमाम जंगलों में लगी
आग माथे पे चुटकी भरके रखी
खून की ज्यों बिंदिया लगाई हो
किस कदर जवान थी,
कीमती थी
कीमती थी
महंगी थी वह रात
हमने जो रात यूं ही पाई थी
कहां जाना था उसे, जहां वह नहीं जा सकी थी...उसके कमरे
में लगी तस्वीर, जो दूर से किसी आदमी की दिखती थी...उस पर जमी धूल कभी साफ क्यों
नहीं होती थी...वो क्यों सुनती थी रफ़ी के गाने, जबकि केवल किशोर कुमार के गाने
बजते समय वह अंधेरे में खिड़की पर आकर खड़ी हो जाती थी...मुझे यकीन है कि तस्वीर
में टंगे शख्स के चेहरे से धूल साफ करने में उसे कोई यक़ीन नहीं था...जबकि उस
पुरानी डायरी में वह शख्स कैद था, जिसकी तस्वीर पर उसने कभी धूल नहीं जमने दी...वो
अकेली ही रहती थी, रहती होगी ही...क्योंकि किसी भी रात न गाने बंद हुए और न ही
किसी दिन, उसके पांव में किसी और ने तेल लगाया...किसी ने उसके हाथ में आकर खाना भी
नहीं दिया...कभी न तो कोई उसकी चोटी कर रहा था और न ही कभी किसी ने खिड़की के एक
ओर जम गए जाले उतारे...मकड़ियों को जब घर मिलता है, तो इंसानों का घर छिन चुका
होता है...पर उसके पास भी घर था और मकड़ियों के पास भी...मुझे ठीक तरह याद है कि
एक कहानी में, एक ख़ुदा के, एक संदेशवाहक की गुफा के मुंह पर भी मकड़ी ने जाला बुन
दिया था...क्योंकि उसे अंदर ज्ञान प्राप्त हो रहा था...इस औरत की गुफ़ा में ज्ञान
शायद उसे सालों पहले हो गया था..अब मकड़ियां और जाला, बस सर्टिफिकेट
था...सर्टिफिकेट, जो एक वक्त बाद, बस हमारी ज़िंदगी भर की मेहनत के किसी काम न आने
का सुबूत होता है...
एक रोज़ उस सिक्योरिटी गार्ड से मैंने पूछा था, कि कौन है वो औरत...उसने हंस कर बताया कि अकेली है...गाने चलाती है रात भर...बिना गाना
चलाए सो नहीं पाती...अक्सर दिन में खुद से बात करती है...ज़ोर-ज़ोर से...कह कर
गार्ड चुप हो गया और चिंता में दिखा...जबकि पास खड़ा एक भद्र आदमी हंसने
लगा...मुझे हैरानी नहीं हुई, बड़े शहरों में हम या तो लोगों के पागल होते जाने पर
ध्यान नहीं देते...या
फिर हम हंस देते थे...हंसी हमारी उपेक्षा का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुकी थी...हम उन
वक़्तों में जीते थे, जहां सुबह फूल खिलने से पहले रोता था और बच्चे रात को सोने
से पहले ज़ोर-ज़ोर से आखिरी बार हंस लेते थे...हमारे वक़्त का नाम खिड़की था और
घड़ी को हम इमारत कहते थे...
अगली रात मैं गाने सुनता रहा, मेरे कान खिड़की पर लगे
थे कि क्या आज वो गाएगी...उसने गाया नहीं...मैं सोच पाया...मैं सोचता रहा कि क्या
इसकी कोई औलाद नहीं होगी...और मैं सोचने लगा कि मैं भी तो अपने घर से दूर ही
हूं...मेरी मां भी शायद कभी अकेलेपन से घबरा कर ख़ुद से बात करने लगे...मैंने एक
लड़की को स्त्री बनने के बीच में अक्सर अपने आप से बात करते देखा था...मुझे पता था
कि उसे पता भी नहीं कि वह खुद से बात करती होगी...हम में से कौन है, जो ख़ुद से
बात करता हो और उसे पता हो...पता होना कहीं ज़्यादा पागल न कर दे...लेकिन उसको
देखने, उससे मिलने कोई भी नहीं आता था...कोई इतना भी अकेला कैसे हो सकता था..वो
तस्वीर किसकी थी, जिससे धूल हटाना या तो उसके लिए ग़ैर ज़रूरी था...या फिर इतना तक़लीफ़देह
कि वह गाने सुन कर ही तसल्ली कर लेती थी...और वो डायरी...उसमें भी तो कोई क़ैद
होगा...
क्या उसको पति के अलावा किसी से प्रेम हुआ होगा...उसकी
शादी हुई भी होगी...और मैं ठिठक जाता हूं...नहीं भी हुई हो तो क्यों फ़र्क़ पड़ना
चाहिए...मेरे अंदर एक मर्द बैठा है, जो औरत को पति या शादी से जोड़ कर अभी भी
देखना चाहता है...फिर मैं हंसता हूं..कि ये खिड़कियां हमारे मन के अंदर झांकने
वाली खिड़कियां भी तो हैं...मैंने उसके पैरों में सूजन देखी है...और यह भी समझा है
कि उसके पास बहुत पैसे नहीं होते होंगे...तो वह खाती क्या होगी...और जो खाती होगी, उसे पकाने की ताक़त कैसे आती होगी उसके पास...मेरा शरीर बुखार से तप
रहा है, सिर भारी है और मैं चाय बनाने बढ़ता हूं...मैं सोच रहा होता हूं कि
अकेलापन आपको जिस्मानी ताक़त इतनी दे देता है कि आप दिमाग से कमज़ोर हो जाते
हैं...हां, वो सारे लोग, जो अकेले रहने को बेहतर बताते हैं, वो आपसे झूठ नहीं बोल
रहे होते हैं...वो अपने आप से झूठ बोलते हैं...अकेला कोई नहीं रह सकता, हम सब अपने
अतीत के
क़ैदी हैं...अपनी यादों की काल कोठरियों में बंधक...और हम अकेले हो ही
नहीं सकते...हम अपने साथ लोगों को लेकर अकेले रहना चाहते हैं...और हम चाहते हैं कि
किसी को पता न चले कि हम अकेले नहीं हैं...अकेले होने से बड़ा झूठ सिर्फ ईश्वर का
होना हो सकता है...और ईश्वर, हां...वह कितना अकेला होगा...कि उसे दुनिया में क़त्ल
ओ आम कर के जी बहलाना होता है...अकेला आदमी दुनिया के प्रति हिंसक होता है,
क्योंकि वह अपने प्रति भी हिंसक होता है...हिंसा पाप है...और ये सोचते हुए ही,
अचानक मुझे लगता है कि अकेले रहने की इच्छा मनोरोग है...और हम इसे महान बताते
हैं...फिर मुझे सती प्रथा, पारम्परिक विवाह, नौकरी करते रहना, साधन बटोर लेने की
इच्छा...सब याद आता है...और मुझे लगता है कि मनोरोग तो इस समाज में विरासत है
हमारी...और मैं अचानक हंसने लगता हूं अपने ऊपर कि मैं भी मनोरोगी हो चला हूं...मैं
एक किताब उठाने को अलमारी की ओर बढ़ता हूं और अचानक एक गाना गूंजता है...इस बार ये
मेंहदी हसन की आवाज़ है...
माना कि मोहब्बत को चिपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
मैं और ज़ोर से हंसने लगता हूं...कि जो ये कह रहा होता
है, वह भी छिपा रहा होता है कि वह ऐसा चाहता है...छिपाने के लिए कहना कितना ज़रूरी
हो जाता है कई बार...मैं फिर सोचने लगता हूं कि क्या उस बूढ़ी औरत को किसी से
प्रेम हुआ होगा...कितनी बार हुआ होगा...बेशक कई बार होना चाहिए...उसकी अंगुलियों
और नेलपेंट से लगता है कि वह बेहद ख़ूबसूरत और शौकीन रही होगी...जो गाने वो सुनती
है, वह भी तो ख़ूबसूरत हैं...उसके
हाथों की झुर्रियां धूप में चमकती हैं...उसे प्रेम हुआ होगा, तो वह और सुंदर हो गई
होगी...उसे प्रेम हुआ होगा तो वह और उदास हो गई होगी...उदास महिलाएं कितनी
ख़ूबसूरत हो जाती हैं न...मुझे यकीन है उसके पास मोबाइल फोन होगा...वह बीमार
पड़ेगी तो तुरंत अस्पताल फोन करेगी...या कोई होगा जिसे वो फोन कर सकती होगी...और
मुझे यकीन हो जाता है कि उसके पास मोबाइल फोन नहीं होगा...मोबाइल और लैंडलाइन फोन
में एक बड़ा अंतर है..लैंडलाइन बंद और उदास पड़ा पता नहीं चलता है...मोबाइल फोन
अगर बजता ही नहीं तो जीवन खत्म होने लगता है...तकनीक जितनी आधुनिक होती है, आप
उतने की पुरातन होते जाते हैं...आप हैं भी तो धरती पर कई लाख साल से...और उससे भी
कई लाख साल पुरानी धरती को आप ने उस औरत की तरह कर दिया है...जो गाने सुन रही है
कि वह मर न जाए...
हां, मैं सोचने लगता हूं कि वह गाने चला कर क्यों सोती
है...क्या इसलिए कि उसकी कराह किसी को सुनाई न दे...या फिर ख़ुद उसको भी न सुनाई
दे...क्या वह गाने चला कर नहीं सोएगी तो मर जाएगी...क्या वह गाने चला कर भी सो
पाती होगी...क्योंकि मरना तो उसे गानों के चलते रहने पर भी है...हम कितने उदास लोग
हैं, कितने हारे हुए...कि हम जीना नहीं चाहते हैं और मौत के डर से हम गाने सुनने
लगते हैं...वो किसका इंतज़ार कर रही है कि मरना भी नहीं चाहती...और क्या कभी कोई लौटता
भी है...अभी मोहम्मद रफी का गाया गीत बज रहा है...
आस निरास के दो रंगों से
दुनिया तूने बनाई
नैया संग तूफ़ान बनाया
मिलन के साथ जुदाई
क्या वह अभी भी ईश्वर पर भरोसा करती होगी...या फिर वह
इसी भरोसे ज़िंदा होगी अब तक...वह कोई शौक रखती होगी...अब तो पूरा कर सकती
होगी...अकेला आदमी तो अपनी इच्छा से जी सकता है न...वो क्या करती
होगी...पेंटिंग...कढ़ाई...फिल्में देखती होगी...घूमने जाती होगी...लेकिन ऐसा होता
है क्या...अकेला शख़्स कोई शौक पूरा नहीं करता है...वह बस अकेला होता है और सोचता
है...याद करता है...हां, वह कविता लिखती होगी...अकेला शख़्स कविता लिखता है और
बहुत अच्छी कविता लिखता है...सबसे अच्छी कविता...गाना बदल गया है...किशोर कुमार...
लोग मिलते हैं
फूल खिलते हैं मगर
कुछ लोग जो मिल के........
बिछड़ जाना, कितना दुखद शब्द है और इसीलिए कितना
ख़ूबसूरत...उसे जवानी में ये गाना कितना अलग महसूस होता होगा...और अब कितना
अलग...कितना...कितना की परिभाषा में कोई अंकगणित कभी सही नहीं बैठता है...कितना,
कितना भी हो सकता है...और खुशी बहुत हो तो भले ही न संभाली
जा सके...दुख कितना भी
हो सकता है...उदासी कितनी भी हो सकती है...कितना और इतना में अंतर बस अंकगणित का
है..हम कितना के अभाव को दूर करने के लिए, इतना की अंकगणित में जीवन काटते
हैं...अचानक गाना बीच में बदला गया है; मुन्नी
बेगम की आवाज़ है...जी मैं आवाज़ पहचानता हूं...मुन्नी बेगम को मेरे पिता सुनते
थे, जब मैं बच्चा था...ये ग़ज़ल बेग़म अख़्तर ने भी गाई है...मेरी एक बुआ अभी भी
किसी भी खुशी के मौके पर फ़रमाइश करने पर यही उदास कर देने वाली ग़ज़ल गाती
हैं...उनकी आवाज़ बेग़म अख़्तर सी ही कांपती है...लेकिन मुझे मुन्नी बेग़म की
आवाज़ पसंद है...कमाल की बात है कि उसको भी मुन्नी बेग़म की ही आवाज़ पसंद है...या
फिर उसके पास यही ट्रैक है...मैं मान लेता हूं कि उसे पसंद है...मुझे बेग़म अख़्तर
की आवाज़ उदास कर देती है...वह इतना असर करती है कि मैं इतना उदास हो जाता हूं कि
मुझे अपने ख़ूबसूरत होते जाने से डर लगने लगता है...उसको भी शायद ऐसा ही लगता
हो...
बुझी हुई शमा का धुआं हूं
मैं अपने मरक़ज़ को जा रहा हूं
कि दिल की दुनिया तो मिट चुकी है
अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूं
मुझे नींद आ गई थी और सुबह जब मैं उठा तो दोपहर हो गई
थी...कई बार सुबह को ही दोपहर हो जाती है...और दिन निकलते ही शाम होने लगती है...मुझे
लगा कि ये कोई छुट्टी का दिन है...बाहर अजीब सा सन्नाटा था...सामने वाली बिल्डिंग
के बाहर कुछ फूल पड़े थे...मैं सोच रहा था कि आज कौन सा त्योहार है और कौन सी
शोभायात्रा निकल गई यहां से...मैं कितनी गहरी नींद में था...दफ्तर की मिस्ड कॉल थी
13...कॉल किया तो याद आया कि छुट्टी का दिन नहीं है...मैं दफ्तर से लौटा तो रात का
1 बजा था...बाहर शांति थी...मैं सोना चाहता था पर नींद तो कभी भी नहीं आती...मैंने
अचानक महसूस किया कि आज गाने नहीं बज रहे हैं...मैं परेशान था कि क्या वह बीमार
है...मैं सोचने लगा कि कल दोपहर जा कर उसके पैरों की मालिश कर देने को
कहूंगा...उसके लिए कुछ फल लेता जाऊंगा...कहीं वो डायबिटिक तो नहीं होगी....खाना
पका कर लेता जाऊंगा...पर उसे कैसा लगेगा...हां, उसे अजीब तो लगेगा पर उससे क्या
होता है...दो-चार बार में सहज हो जाएगी...उसे एक मोबाइल फोन खरीद कर दे दूंगा और
फोन करता रहूंगा...कुछ दोस्तों को उससे मिलवा दूंगा...फिल्में देखने को दूंगा...और
हां, इस बहाने उससे गाने सुन लूंगा...बल्कि सुनाऊंगा भी...पर क्या मैं ये कर
पाऊंगा....मैंने गाना शुरु कर दिया था...
जो कू ए यार से निकले
तो सू ए दार चले
और नींद गहरा गई थी...सुबह को आना था, भले ही कवि न
चाहे...और वह आई...
खिड़की पर खड़े हो कर खिड़की को देखने की कोशिश में अचानक
उस सोसायटी के गेट पर रखे कुछ सामान पर निगाह पड़ी...पुराना फर्नीचर था...मुझे कुछ
फर्नीचर चाहिए था और नया खरीदने की हैसियत फिलवक्त नहीं थी...मुंबई में अक्सर लोग
अपना पुराना सामान बेच देते हैं...मैं बाहर निकला, एक सिगरेट सुलगाई और गेट पर
जाकर गार्ड से पूछा...ये सामान कोई बेच रहा है...वह बोला, ‘नहीं, वो मकान खाली हुआ है
न...उसका सामान है...बेकार ही है...’
मैंने पूछा, ‘तो
क्या इसको खरीदा जा सकता है...’
गार्ड ने कहा, ‘किससे
खरीदेंगे...आंटी का सामान है...वो तो परसों रात गुज़र गई...’ फर्नीचर के बीच रखी
पेंटिंग, कढ़ाई किए हुए कुशन और कई सारी डायरीज़ को देख कर, बदहवास मैं बहुत तेज़ी
से वापस आ रहा था...वो खिड़की खुली है और मेरी उस पर अचानक निगाह गई...मैं डर रहा
था...अंदर आ कर मैंने दूसरी सिगरेट जला ली...रात को घर लौटने का ख़्याल डरा रहा था...मैंने
दफ्तर जाते वक्त तय किया कि आज से गाने चला कर ही सोया करूंगा...सामने दुकान पर एक
औरत बैठी थी...उदासी से लबरेज़, बेइंतिहा ख़ूबसूरत...मैंने दोनों हाथों से आंखें
ढंक ली थी...और पसीने से मेरे हाथ भीगते जाते थे...मैं ज़ोर-ज़ोर से गाना गाने लगा
था और इतनी तेज़ी से चलता था कि गिर गया...मैं अभी भी गुनगुना रहा था...
शाम समझाए भी तो न समझूंगी मैं
रात बहलाए भी तो न बहलूंगी मैं
सांस उलझाए भी तो न उलझूंगी मैं
मौत बहकाए भी तो न बहकूंगी मैं
मेरी रूह भी जला-ए-वतन हो गई
जिस्म सारा मेरा इक सेहन हो गया
कितना हल्का-सा, हल्का-सा तन हो गया
जैसे शीशे का सारा बदन हो गया।
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