शहर, खिड़की और लोग - 4

शहर खिड़की और लोग की यह चौथी किस्त है...इसको ब्लॉग पर डाल देना इसलिए ज़रूरी था कि मैं अगली किस्त लिखने को मजबूर हो जाऊं...क्योंकि अब मेरे पास डालने को नई किस्त नहीं बची है...हां, ज़ेहन में खिड़कियां कई सारी हैं...उस सुबह घर से काम पर जाती लड़की...रात भर गाना बजा कर सोती बूढ़ी औरत...और भी कई कहानियां, जिनका अभी तक ज़िक्र भी नहीं हुआ...मुझे रोज़ लगता है कि ये खिड़कियां अगर जल्दी लिख कर बंद नहीं की जाएंगी...तो ये मुझे लील जाएंगी...और एक दिन दुनिया को...वैसे भी मुझे जाने के बाद इस दुनिया के होने न होने का क्या फर्क पड़ेगा...कई बार जान, खिड़की से बाहर कूद जाने से नहीं, खिड़की से अंदर चले जाने पर भी जा सकती है...ये कई बार, हमारे समाज में अमूमन हो जाता है...अपवाद के अमूमन हो जाने का अर्थ समझते हैं आप??
- लेखक

वो पेंटर बनना चाहता है, मैंने उसे कई बार उसके कमरे की खिड़की पर अल सुबह 4 बजे ब्रश से चित्र बनाते देखा है..और उस.खिड़की को देख कर मुझे पता है कि उसके घरवाले उसे ढंग की कूची और कैनवस खरीद के दे सकते हैं...ख़ैर...ये ख़ैर, खिड़की में रहने वाले हर शख्स की ज़िंदगी का सबसे अहम शब्द है...शब्द नहीं, पुल है...जो उन्हें मन के इस पार से बेमन के उस पार, बिना मृत्यु में डुबोए उतार देता है...
नीचे से ऊपर की ओर कोने की उस तीसरी खिड़की की बत्ती, रात 10 बजे बंद हो जाती है और सुबह सबसे पहले जलती है...खिड़की के रोशन होने के बाद वह कुछ देर खिड़की पर कुछ उकेरता रहता है...और फिर अंदर पीछे दिखते दरवाज़े के रोशन होते ही तुरंत किताब उठा कर कमरे में इधर से उधर टहलने लगता है...कुछ मिनट में एक औरत आएगी, जो शायद उसकी मां ही होगी...वो उसके हाथ में एक गिलास दे कर चली जाती है, जो भारतीय मानसिकता के मुताबिक दूध ही हो सकता है...शायद हम मान लेते हैं कि दूध पीने से मनुष्य अपनी इच्छाओं का सरलता से दमन कर सकता है और अनिच्छा को जीवन का मार्ग बना सकता है...
वो इधर से उधर टहलता है, अंदर कमरे की बत्ती बुझने का इंतज़ार करता है...अंदर कमरे की बत्ती बुझते ही वह किताब को खिड़की पर ही रख कर, दोबारा खिड़की से बाहर आसमान देखने लगता है...ब्रश उठाता है और उसे खिड़की पर फिराने लगता है...मैं बार-बार देखना चाहता हूं कि खिड़की पर क्या चित्र बनाता होगा वो...लेकिन खिड़की आजतक कभी बंद नहीं देखी...छुट्टियों में भी वह रोज़ वैसे ही किताब लेकर टहलता है...आखिर कौन सी तैयारी कर रहा है वो...क्या ज़िंदगी में कभी कोई किताबी तैयारी काम आती है? काम तो दुनियावी तैयारी भी नहीं आती...
कई बार मुझे लगता है कि जिस रोज़ वह खिड़की बंद होगी, वह दुनिया की सबसे खूबसूरत खिड़की दिखेगी अपने चित्रों के साथ...फिर मुझे लगता है कि हो सकता है कि वह खिड़की पर रंगों से कुछ न बनाता हो...बस ब्रश से ऐसे ही कुछ उकेर कर कल्पना में उन चित्रों को देख कर खुश हो जाता हो...कई बार कैनवस के हमेशा खाली रहने पर, आपके चित्र असीमित हो सकते हैं...क्योंकि वह कभी भरता नहीं है...पर फिर हम अपने कैनवस को भर क्यों देना चाहते हैं...क्या वह भी चाहता है ऐसा...फिर मुझे लगता है कि खिड़की कभी बंद हो ही क्यों, इसी के ज़रिए तो वह बाहर की दुनिया को देख पाता है...
उसको खिड़की से बाहर देखते हुए, देख कर..अक्सर मुझे फ्रैंज़ काफ़्का याद आते हैं, जब वो ब्लू ऑक्टेवो नोटबुक्स में कहते हैं, 'जीवन में समझ की शुरुआत का पहला लक्षण, मृत्यु की इच्छा है। ये जीवन असहनीय और अनुपस्थितीकारक प्रतीत होने लगता है। व्यक्ति मरने को लेकर बिल्कुल भी शर्मिंदा नज़र नहीं आता है, उसे किसी पुरानी कोठरी से विस्थापित होने को कहा जाता है, जिसे वह नफ़रत करता है, वह जिस नई कोठरी में जा रहा होता है, उसे वह आने वाले वक़्त में और नफ़रत करने लगेगा। इस सबके बीच, एक विश्वास यह भी होता है कि एक दिन गलियारे में राजा आएगा और उस क़ैदी को देख कर कहेगा, "इस व्यक्ति को दोबारा जेल में नहीं आना होगा, इसे मेरे साथ भेज दो..."' (Franz Kafka) वह देख रहा है आसमान को, टूटते और रोशनी में धीरे-धीरे लुप्त होते तारों को...जिनको वह ज़्यादा प्यार करता है और उसे आसमान में सूरज के आने की रोशनी दिखती है...उसे बताया गया है कि सूरज सबसे अहम है...जबकि वह महसूस करता है कि सूरज जो रोशनी लेकर आता है, वह धीरे-धीरे दोपहर तक असहनीय हो जाएगी...और जो सूरज को महान कह रहे हैं, वे ही लोग उसके डूब जाने का इंतज़ार करेंगे...कितनी सुंदर होती है रात...वो लोग जो रात को तारों के नीचे किसी छत पर संभोग की कल्पना करते हैं...उनमें से कितने होंगे जो तपती धूप में ऐसा करने के बारे में सोचते होंगे...
वह खिड़की से बाहर देखता है किसी कैदी की तरह, जिसे जेल को स्वर्ग मानने की सज़ा मिली है...वह, जैसा कि पहली किस्त में मैने बताया, किसी रोज़ समंदर किनारे बैठ कर, घंटों बस लहरों को देखना चाहता है...वह चाहता है कि उसके पैरों को छूकर पानी भाग जाए...वह इस खेल में आनंद लेना चाहता है कि वह पानी को आते देख कर, अपने पैर पीछे कर के, जांचे कि पानी उसके पैर छू सकेगा या नहीं...
इस बीच दोबारा अंदर कमरे में रोशनी होती है, वह दोबारा अपने हाथ में किताबें ले लेता है...पीछे अभी भी बूढ़ी औरत के बजाए, पुराने गीत बज रहे हैं...पीछे के कमरे से एक शख्स आता है और उससे कुछ पूछता है...वह सिर नीचे झुकाए खड़ा रहता है...उसे सारे सवालों के जवाब पता हैं, बिल्कुल ठीक पता हैं...पर उसे यकीन है कि सामने खड़ा शख्स, जो उसका पिता भी हो सकता है...उसका अध्यापक भी...और किसी जेल का जेलर भी...वो किसी भी सवाल का जवाब ठीक से नहीं समझेगा, क्योंकि उसे सिर्फ सवाल रटाए गए हैं...और जवाब, कभी रटे नहीं जा सकते हैं...वह चुप रहता है और उसके जाते ही, एक आंख की कोर से कुछ पोंछता है...मैं दावा नहीं कर सकता हूं कि वह आंसू ही होगा, वह मोती सहेजने की कोशिश या चिंगारी दबाने का प्रयास भी हो सकता है...
उसकी किताब किस विषय की है, यह मुझे नहीं पता है...पर वह पेंटिंग का सबसे बड़ा उस्ताद है, ये मुझे पता है...क्योंकि वह अपनी खिड़की पर वह पेंटिंग बना रहा है, जो कभी पूरी नहीं होगी...दुनिया की सबसे महान कलाकृतियां, हमेशा अधूरी ही तो रह गई न...वह चित्र बना रहा है, जेल की खिड़की पर...और अल्फा-बीटा-गामा, टैन, कॉस, साइन और किताबों के बोझ के बीच, कविता जैसी आंखें लेकर, दिखाई न देने वाली तस्वीरें बनाना, सबसे महान चित्रकार का ही काम हो सकता है...
मुझे अभी भी लगता है कि उसे आज़ाद कराना चाहिए, जो मेरे बस में नहीं है...उसे अभी भी लगता है कि कोई राजा उसे एक दिन जेल से आज़ाद कराएगा...जो राजा के बस का नहीं है...उसे पेपर लीक हो जाने और टॉपर्स की तस्वीरों के बीच, अपनी कविता सी आंखें और जादू से चित्र ज़िंदा रखने हैं...जिनको उसके बाद कोई और आगे पूरा करेगा...तब, जब वह किताबों के बोझ में फंस कर, किसी नौकरी को शादी की तरह निबाह रहा होगा...और उसके घर के छोटे कमरे में कोई और ऐसे ही किताब को कुछ देर के लिए हटा कर, उससे छुप कर...उसके कमरे की बत्ती बंद होने के बाद, तारों को देख कर...अपनी जेल की खिड़की पर पेंटिंग करने की कोशिश कर रहा होगा...वो पेंटर ही होगा, भले ही उसके हाथ में कूची हो या गिटार...या कलम और नोटबुक...या फिर क्रिकेट का बैट...
हम जहां अपने बच्चों को रख कर भूल गए हैं...वहां उनकी ज़िंदगी छोटी होती है...उम्र बड़ी... The Old Man and the Sea में Ernest Hemingway ने जैसा लिखा है...
“Fish," he said, "I love you and respect you very much. But I will kill you dead before this day ends.”


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