भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में अडिग कुंवर नारायण
अभी दो दिन के लिए लखनऊ-प्रतापगढ़ और सीतापुर ( तीनो उत्तर प्रदेश ) की २ दिन की तुरत फुरत यात्रा पर था सो दो तीन दिन कोई चिट्ठाकारी नही कर पाया पर कलाकारी और विचारकारी जारी थी( जो अगली पोस्ट में मिलेगा) पर फलहाल तो बात कुंवर नारायण की ( अब मतलब जब सब ही उनके बारे में बतिया रहे हैं तो आप हमको ही काहे घूर रहे हैं, अरे हॉट टापिक ही तो ब्लोगरों का टानिक है ) की जब भी उनको पढ़ा है तो पाया है कि भाषा और उसके अर्थ अनुप्रयोग को लेकर जिस तरह का विचार मंथन उनके भीतर चलता रहा शायद ही किसी के मन में रहा हो। अंततः हमेशा ही वह मंथन कागज़ पर उतरा और हम तक पहुँचा......
एक विशेष बात आज सोचते सोचते याद आई कि हरिवंश राय बच्चन ने भी अंग्रेज़ी से डाक्टरेट की और कुंवर नारायण ने भी अंग्रेज़ी से ही लखनऊ विश्वविद्यालय से परास्नातक.....और दोनों ही हिन्दी भाषा के मामले में बेहद मज़बूत तो इस पर भी सोचें। पर अब ज्ञानपीठ ने उनके काम को माना है तो हम भी उनकी कुछ कवितायें पढ़ें.....
अर्पित हैं
भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
प्लास्टिक के पेड़
नाइलॉन के फूल
रबर की चिड़ियाँ
नाइलॉन के फूल
रबर की चिड़ियाँ
टेप पर भूले बिसरे
लोकगीतों की
उदास लड़ियाँ.....
लोकगीतों की
उदास लड़ियाँ.....
एक पेड़ जब सूखता
सब से पहले सूखते
उसके सब से कोमल हिस्से-
उसके फूल
उसकी पत्तियाँ ।
सब से पहले सूखते
उसके सब से कोमल हिस्से-
उसके फूल
उसकी पत्तियाँ ।
एक भाषा जब सूखती
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
भावों की ताज़गी
विचारों की सत्यता –
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
भावों की ताज़गी
विचारों की सत्यता –
बढ़ने लगते लोगों के बीच
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ......
सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
किस तरह कुछ कहा जाय
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
जिनका ध्यान सब की ओर है –
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ......
सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
किस तरह कुछ कहा जाय
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
जिनका ध्यान सब की ओर है –
कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।
शब्दों की तरफ़ से
कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
दुनिया को देखता हूँ ।
दुनिया को देखता हूँ ।
किसी भी शब्द को
एक आतशी शीशे की तरह
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
मुझे उसके पीछे
एक अर्थ दिखाई देता
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है
एक आतशी शीशे की तरह
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
मुझे उसके पीछे
एक अर्थ दिखाई देता
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है
ऐसे तमाम अर्थों को जब
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
कि उनके योग से जो भाषा बने
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-
सरल और स्पष्ट
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
कि उनके योग से जो भाषा बने
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-
सरल और स्पष्ट
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।
आदमी का चेहरा
“कुली !” पुकारते ही
कोई मेरे अंदर चौंका ।
कोई मेरे अंदर चौंका ।
एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास
सामान सिर पर लादे
मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे
बढ़ने लगा वह
सामान सिर पर लादे
मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे
बढ़ने लगा वह
जो कितनी ही यात्राओं में
ढ़ो चुका था मेरा सामान
मैंने उसके चेहरे से उसे
कभी नहीं पहचाना
ढ़ो चुका था मेरा सामान
मैंने उसके चेहरे से उसे
कभी नहीं पहचाना
केवल उस नंबर से जाना
जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता
आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया
एक आदमी का चेहरा याद आया
जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता
आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया
एक आदमी का चेहरा याद आया
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