लेकिन मेरा लावारिस दिल
एक बार पहले भी आप सबको डॉक्टर राही मासूम रज़ा की कृतियाँ पढ़वा चुका हूँ.....हिंदू मुस्लिम के विकट विषय पर इन्होने बहुत लिखा और नश्तरी लिखा .....इतना नश्तरी कि धर्म के ठेकेदारों के दिलो पर घाव कर डाले; फिलहाल मुल्क के अभी के माहौल पर पेश ऐ खिदमत है ,
लेकिन मेरा लावारिस दिल
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
अब जिस की जंबील में
कोई ख़्वाब कोई ताबीर नहीं है
मुस्तकबिल की रोशन रोशन
एक भी तस्वीर नहीं है
बोल ए इंसान, ये दिल,
ये मेरा दिल ये लावारिस,
ये शर्मिन्दा शर्मिन्दा दिल
आख़िर किसके नाम का निकला
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
मंदिर राम का निकला
बन्दा किसके काम का निकला
ये मेरा दिल है या मेरे ख़्वाबों का मकतल
चारों तरफ बस ख़ून और आँसू,
चीख़ें, शोले घायल गुड़िया
खुली हुई मुर्दा आँखों से
कुछ दरवाज़े ख़ून में लिथड़े
कमसिन कुरते
एक पाँव की ज़ख़्मी चप्पल
जगह-जगह से मसकी साड़ी
शर्मिन्दा नंगी शलवारें
दीवारों से चिपकी बिंदी सहमी चूड़ी
दरवाज़ों की ओट में आवेजों की कबरें
ए अल्लाह, ए रहीम, करीम, ये मेरी अमानत
ए श्रीराम, रघुपति राघव,
ए मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम ये आपकी दौलत
आप सम्हालें मैं बेबस हूँ
आग और ख़ून के इस दलदल में
मेरी तो आवाज़ के पाँव धँसे जाते हैं।
राही मासूम रज़ा
sach bahut sundar rachana
जवाब देंहटाएंमस्जिद तो अल्लाह की ठहरी
जवाब देंहटाएंमंदिर राम का निकला
लेकिन मेरा लावारिस दिल
bahut sundar. ek ek shabad dard se bhara hai.
मन्दिर बनाया आपने,
जवाब देंहटाएंमस्जिद बनाई आपने,
दिल बनाया जिस ने,
निकाल दिया उसे दिल से,
फ़िर दिल लावारिस तो होना ही था.
प्रिय मयंक जी
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना पेश की है आज के माहौल में और भी सामयिक है