चुनावी ग़ज़ल
इधर दो तीन दिन से फिर लोग बातें सुनाने लगे थे कि बातें तो बहुत बड़ी बड़ी करते हो और हफ्ता भर होने को है, ब्लॉग पर कोई पोस्ट नहीं डाल पाये। शर्म तो आई पर करता क्या, केव्स संचार इतना व्यस्त रखता है कि ताज़ा हवा चलाने को कई बार फुर्सत नहीं मिलती। इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि सामुदायिक हित में लग जाने के बाद अपनी चिंता करने का वक्त कम मिल पाता है। अब इसको इस तरह ना लें कि मैं ब्लोगिंग का कोई बड़ा संत या मठाधीश हूँ पर इतना ज़रूर है कि ताज़ा हवा और केव्स संचार शुरू करते समय दो अलग अलग कसमें खायी थी और फिर एक कसम खाई शम्भू चौधरी जी, शैलेश जी, हिमांशु और अनुपम अग्रवाल जी की महिमा से कि हिन्दी ब्लोगिंग का अपने स्तर पर जितना हो सके बेडागर्क करना है ( कुछ लोग इसे सेवा कह कर ख़ुद को महिमामंडित करते हैं पर ऐसा केवल ब्लोगिंग के महापंडित करते हैं ) ...... जैसा कि श्री श्री श्री समीर लाल जी उर्फ़ उड़नतश्तरी महाराज उवाच कि " कुछ भी लिखो, उद्धार हिन्दी ब्लोगिंग का ही होगा" सो हम सामुदायिक ब्लॉग को अधिक समय देते हैं और नए ब्लॉग को पढने को भी आजकल अधिक समय देते है ( प्रेरणा : श्री महाराज उड़नतश्तरी, सौजन्य: चिट्ठाजगत) इसीलिए ताज़ा हवा को समय कम दे पते हैं,
खैर मुद्दे पर आयें तो एक चुनावी ग़ज़ल लिख मारी है ( अमा चुनावी मौसम है तो वही सूझेगा ना ) बर्दाश्त इनायत होगी !
चुनावी ग़ज़ल
खैर मुद्दे पर आयें तो एक चुनावी ग़ज़ल लिख मारी है ( अमा चुनावी मौसम है तो वही सूझेगा ना ) बर्दाश्त इनायत होगी !
चुनावी ग़ज़ल
हुए थे लापता कुछ साल पहले, अब हैं लौट आए
वो नेता हैं, कि हाँ फितरत यही है।
हम उनकी राह तक-तक कर बुढाए
हम जनता हैं, कि बस किस्मत यही है।
वो बोले थे, ना हम सा कोई प्यारा
वो भूले, उनकी तो आदत यही है।
बंटी हैं बोतलें, कम्बल बंटे हैं
वो बोले आपकी कीमत यही है।
वो मुस्काते हैं, हम हैं लुटते जाते
कि बस हर बार की आफत यही है।
जो पूछा, अब तलक थे गुम कहाँ तो
वो बोले, बस हुज़ूर फुर्सत यही है।
हम उनकी राह तक-तक कर बुढाए
जवाब देंहटाएंहम जनता हैं, कि बस किस्मत यही है।
सच्चाई बयां करती हुई ग़ज़ल...बहुत खूब...
नीरज
आप तो हमें भूल गए ,और हमने याद रखा
जवाब देंहटाएंवो बोले समय पर याद करें,हिफाज़त यही है
बढ़िया रचना के लिये बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंmayank g
अच्छा लिखते हो ग़ज़ल-ए-बयां पसंद आया पहली बार इस ब्लॉग पर आया हूँ। वधाई हो इस हक़ीक़त को जानते तो सभी हैं,मग़र कौन बनेगा दर्द की दवा,ज़ख़्म का मलहम। तेजस्वी ओजस्वी लोग मीडिया की शरण में हैं जो उद्योगपतियों की कठपुतली हैं आखिर क्यों ये तथाकथित क्रांतीवीर राजनीति नहीं ज्वाइन करते। मयंक जी से उम्मीदें बहुत हैं।
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