नज्में...दिल की बातें हैं.....
अभी ब्लोग्वानी देख रहा था और पाया कि हमारे ब्लॉगर बन्धु और भगिनियां अभी तक मुंबई शोक से उबर नहीं पाये हैं.......और इस मायने में वे वाकई हिन्दुस्तान का प्रतीक रूप माने जा सकते हैं। हिन्दुस्तान भी इस दुःख से अभी उबर नहीं पा रहा है.....और शायद अभी इसमे वक़्त भी लगेगा। पर जैसा मैंने कहा कि इस मायने में तो मैं अपने अल्फाज़ वापिस लूँगा कि इस मायने में ही नहीं बल्कि हर मायनों में ब्लॉग जगत एक छोटा हिन्दुस्तान है.....अलग अलग जातियाँ, भेष ..... तरीका, सलीका, मान्यताएं और अलग अलग विचार। हम सब रोज़ अलग अलग मुद्दों पर बात करते है....उस पर विचार देते हैं.....टिपियाते हैं।
हम में हर तरह के लोग हैं। कुछ जाति और धर्म के पूर्वाग्रहों से दूर तो कई धर्म परायण ...... कुछ अति उत्तेजित रहते हैं तो कुछ हर स्थिति में शांत। कुछ धर्म को राजनीति से जोड़ते हैं तो कुछ राजनीति से ही दूर रहते हैं....कुछ सुनहरे भविष्य को लेकर आशान्वित हैं और कुछ कहते हैं कि कुछ बदलने वाला नही ! इनमे से कई धैर्य वाले हैं....खुले विचारों के हैं...धर्मनिरपेक्ष हैं तो कुछ जल्दबाज़ और कट्टर ..... पर कुल मिलकर बड़ी बात यह है कि यह लिख रहे हैं....अपने विचार खुले तरीके से रख रहे हैं....हिदोस्तान की ही तरह तमाम मतभेद होने के बावजूद ये मुंबई के बारे में लिख रहे हैं और इनके विचार और तरीके भले ही अलग अलग हो पर महत्वपूर्ण यह है कि इन सबको कहीं न कहीं देश ही फ़िक्र है.....( तरीकों और विचारों से भले मैं और आप सहमत न हो पाएं...)
खैर अभी मुंबई और मुल्क से जुड़ी कुछ पोस्ट पढ़ रहा था और कुछ नज्में याद आई जो पेश कर रहा हूँ ये कवितायें मुल्क की और अवाम की बातें करती हैं तो गौर फ़रमाएँ,
ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
अदम गोंडवी की नज्में मुझे ख़ास पसंद हैं क्यूंकि ये आम आदमी के पसीने की महक और गाँव की मिटटी की सोंधी खुशबू समेटे होती हैं, पहली है गर चाँद तवारीखी तहरीर बदल दोगे, ये नज़्म उनके लिए है जो सारे मुसलमानों को गद्दार मानते हैं;
ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे
जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?
जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?
तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ?
मैं अपना सलीब आप उठा लूँ
अगली नज़्म है अहमद नदीम कासमी की .... नदीम साहब अपनी नज्मों के लिए मशहूर हैं, ये नज़्म नज़र करता हूँ मुंबई के लोगों को ..... मुल्क के हालात को ..... दुनिया के हालात को !
फूलों से लहू कैसे टपकता हुआ देखूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ
आँखों को बुझा लूँ कि हक़ीक़त को बदल दूँ
हक़ बात कहूंगा मगर है जुर्रत-ए-इज़हार
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ
जो बात न कहनी हो वही बात न कह दूँ
हर सोच पे ख़ंजर-सा गुज़र जाता है दिल से
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ
हैराँ हूँ कि सोचूँ तो किस अन्दाज़ में सोचूँ
आँखें तो दिखाती हैं फ़क़त बर्फ़-से पैकर
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ
जल जाती हैं पोरें जो किसी जिस्म को छू लूँ
चेहरे हैं कि मरमर से तराशी हुई लौहें
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ
बाज़ार में या शहरे-ख़मोशाँ में खड़ा हूँ
सन्नाटे उड़ा देते हैं आवाज़ के पुर्ज़े
यारों को अगर दश्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
यारों को अगर दश्त-ए-मुसीबत में पुकारूँ
मिलती नहीं जब मौत भी मांगे से, तो या रब
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ
हो इज़्न तो मैं अपना सलीब आप उठा लूँ
( पैकर=चेहरे, लौहें=कब्र पर लगा पत्थर, दश्ते-मुसीबत=मुसीबतों का जंगल, इज़्न=इजाज़त )
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
और तीसरी और आख़िर ग़ज़ल है हमारे हुक्मारानों के, धर्म के ठेकेदारों के और हम सबके नाम क्यूंकि सब जिम्मेदार हैं इन हालातों के लिए....जो धोखा देते हैं वो भी और जो धोखा खाते हैं वो भी ! चाँद पर पहुँचने से पहले हमें अपनी धरती के हालात ठीक करने होंगे.....तो शायद आज की पोस्ट के अंत के लिए दुष्यंत की इस ग़ज़ल से ज्यादा कुछ सटीक नहीं हो सकता है............
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
अंत में बशीर बद्र के अल्फाजों में कहें तो,
हमसे हो नहीं सकती दुनिया की दुनियादारियाँ
इश्क़ की दीवार के साये में राहत है बहुत
उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मी
रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत
आख़िर में यही कि ज़िन्दगी अपना रास्ता ढूंढ ही लेती तो उम्मीद बनाए रखें !
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बेहतरीन गजलें हैं । िजंदगी और दुिनया के सच को बखूबी बयान करती हैं । मैने अपने ब्लाग पर गजल पर एक लेख िलखा है - उदूॆ की जमीन से फूटी िहंदी गजल की काव्यधारा- समय हो तो उसे पढें और राय भी दें-
जवाब देंहटाएंhttp://www.ashokvichar.blogspot.com
बेहतरीन गजलें हैं...
जवाब देंहटाएंअच्छा प्रस्तुतीकरण और विचार
जवाब देंहटाएंउम्मीद जगाती हुई रचना