ज़रूरी हैं .........................
माथे पर चिंता की लकीरें
धीरे धीरे बदलती झुर्रियों में
दिन भर बीनता कचरा
रात आ पसरता झुग्गियों में
जूठन में कलेवा ढूंढता
तलाशता जिंदगी जनाजों में
उतरन से ढकता आबरू
बचता ठण्ड से अलावों में
वो जो बुहारता है सड़कें
वह जो उठाता है मैला
वह जो घर घर फेरी करता है
लेकर एक फटा सा थैला
वो जो खींचता है अपने ही जैसे
एक आदमी को, रिक्शे में बिठा कर
वो जो ऊंची इमारतें चमकाता है
ख़ुद को रस्से पर लटका कर
तपती धूप में आदमी वो जो
ढोता है तसलों में भर भर मिटटी
औरत जिसकी गोद में है शिशु
और कंधे पर गिट्टी
वो जो उतरा है गली के
खुले हुए गटर में
ताकि माहौल ना ख़राब हो
खुशबुओं के शहर में
वो जिसके रईस हमउम्र
जाते हैं अपनी अपनी कारों में स्कूल
जो लड़ते हुए ज़िन्दगी से
अपना बचपन गया है भूल
जिनको हम अक्सर बिना बात
छूटते ही दे देते हैं अश्लील सी गाली
मार देते हैं तमाचा अक्सर
इनके बगल से निकलते हैं बचकर
हम डरते हैं की इनके छूने से
हमारा अस्तित्व ना मैला हो जाए कहीं
पर सबसे ज्यादा काम हमारा
करते हैं लोग वही
इन सबके और हम सबके बीच
शारीरिक समता के अलावा
क्या कोई और समानता है ?
क्या हम मानव हैं
और अगर नहीं हैं तो कौन हैं ये ?
अगर मानव के अधिकार होते हैं
और हमारे अधिकार हैं
तो ज़ाहिर हैं हम ही मानव हैं
फिर ये कौन हैं ?
क्या ये कड़ी हैं कोई
जो पशु और मानव को जोड़ती है
या कोई हथौडी है सत्य की जो
मानव होने के भ्रमों को तोड़ती है
क्योंकि जीवन के लिए
साँस और विचार ज़रूरी है
मानव होने के लिए
अधिकार ज़रूरी हैं .........................
मानवाधिकार दिवस पर विशेष प्रस्तुति......यह कविता मैंने अभी लिखी पर कहीं ना कहीं यह बचपन में पढ़ी गई एक कविता से प्रभावित है जो संभवतः अज्ञेय ने लिखी थी......
मयंक सक्सेना (9310797184)
बहुत बढ़िया कोशिश कि है आप ने
जवाब देंहटाएंबहुत सही॒!!!
जवाब देंहटाएंशुक्र है...दुनिया में इंसान अभी ज़िंदा हैं....जो दूसरों के दुख-दर्द को समझ पाते हैं...जो कुछ लिखा है आपने वो भावुक और दर्दनाक तो है ही साथ ही एक कड़वी हकीकत भी है....काश कि हम इस लायक बनें कि उनमें से किसी एक को भी ज़िंदगी दे पाएं.....
जवाब देंहटाएं