काश !
हिमांशु की फरमाइशें और ब्लॉग जगत की उम्मीदें पिछली पोस्ट के बाद कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं, अब एक बार फिर पुरानी डायरी के पीले पन्नों को पलटना पढ़ रहा है....ज़िन्दगी के कुछ ऐसे किस्से जिनमे से कुछ भुलाए नहीं जा सकते, कुछ याद नहीं रह गए और कुछ जानबूझ कर भुला दिए गए हैं....उन से फिर से दो चार होना पड़ रहा है। फिलहाल कल जनाब हिमांशु उर्फ़ हिम लखनवी का फ़ोन आया और गुजारिश की गई कि क्यों नहीं पुरानी डायरी से कुछ और पेश करते तो जनाब पेश ऐ खिदमत है एक और नज़्म ऐ इश्क ....यह भी थोड़ा प्रयोगधर्मी है सो कमियाँ बर्दाश्त करें,
काश !
ऐ काश कभी ऐसा होता !
तुम राह में मुझको मिल जाते
मैं देख के तुम को मुस्काता
तुम पूछते मुझसे "कैसे हो?"
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मैं अपनी ही धुन में रहता
और तुम अपने दिल में कहते
मुझको पसंद हो ' जैसे हो'
ऐ काश कभी ऐसा होता !
तुम देख के मुझको छिप जाते
मन में कुछ सोच के मुस्काते
फिर ख़ुद ब ख़ुद शरमा जाते
ऐ काश कभी ऐसा होता !
जब इंतज़ार मेरा करने पर
तेरी आँखें भर आती
और फिर मेरे आने पर तुम
मुंह फेर के गुस्सा दिखलाती
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मैं वही बहाने बतलाता
तुम कहती मुझसे झूठे हो
और मैं कहता छोडो जाने भी दो
ऐसे क्यो रूठे हो
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मेरी आँखें तुम पढ़ लेते
बिन कहे मेरे तुम सुन लेते
हाथों में मेरा हाथ लिए
जीवन तुम अपना बुन लेते
ऐ काश कभी ऐसा होता !
हाँ काश कभी ऐसा होता !!
यह कविता भी उसी दौर में लिखी गई थी जब जीवन में हर नई सुबह, प्रेम का नया झोंका ले आती थी....सूरज की लाली में, गालों की लालिमा और गुलाब का हर फूल, अधरों की सुर्खियों की बात करता था.....हर बार ऊपर आकाश की ओर देख कर निकलता था काश !
पर पिछली कविता पढ़ कर यह तो ज़ाहिर ही हुआ होगा की यह काश ....काश ही रह गया ! खैर यह भी कोई गैरमामूली बात नहीं की यह काश तब से अब तक जिंदा है .......हर रोज़ एक नए चेहरे को देख कर नया काश ..... कि काश !
खैर वह काश तो पूरा नहीं हो पाया पर हिमांशु का काश अब पूरा हो रहा है कि सक्सेना जी गीत पर गीत ...नज़्म पर नज़्म डाल रहे हैं !!!
काश !
ऐ काश कभी ऐसा होता !
तुम राह में मुझको मिल जाते
मैं देख के तुम को मुस्काता
तुम पूछते मुझसे "कैसे हो?"
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मैं अपनी ही धुन में रहता
और तुम अपने दिल में कहते
मुझको पसंद हो ' जैसे हो'
ऐ काश कभी ऐसा होता !
तुम देख के मुझको छिप जाते
मन में कुछ सोच के मुस्काते
फिर ख़ुद ब ख़ुद शरमा जाते
ऐ काश कभी ऐसा होता !
जब इंतज़ार मेरा करने पर
तेरी आँखें भर आती
और फिर मेरे आने पर तुम
मुंह फेर के गुस्सा दिखलाती
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मैं वही बहाने बतलाता
तुम कहती मुझसे झूठे हो
और मैं कहता छोडो जाने भी दो
ऐसे क्यो रूठे हो
ऐ काश कभी ऐसा होता !
मेरी आँखें तुम पढ़ लेते
बिन कहे मेरे तुम सुन लेते
हाथों में मेरा हाथ लिए
जीवन तुम अपना बुन लेते
ऐ काश कभी ऐसा होता !
हाँ काश कभी ऐसा होता !!
यह कविता भी उसी दौर में लिखी गई थी जब जीवन में हर नई सुबह, प्रेम का नया झोंका ले आती थी....सूरज की लाली में, गालों की लालिमा और गुलाब का हर फूल, अधरों की सुर्खियों की बात करता था.....हर बार ऊपर आकाश की ओर देख कर निकलता था काश !
पर पिछली कविता पढ़ कर यह तो ज़ाहिर ही हुआ होगा की यह काश ....काश ही रह गया ! खैर यह भी कोई गैरमामूली बात नहीं की यह काश तब से अब तक जिंदा है .......हर रोज़ एक नए चेहरे को देख कर नया काश ..... कि काश !
खैर वह काश तो पूरा नहीं हो पाया पर हिमांशु का काश अब पूरा हो रहा है कि सक्सेना जी गीत पर गीत ...नज़्म पर नज़्म डाल रहे हैं !!!
rochak
जवाब देंहटाएंकभी हम भी इस तरह से दिल लाते
जवाब देंहटाएंऔर फ़िर दिल, दिल से मिल पाते
लबों पे नाम अपना भी कभी सुन पाते
और साथ तेरे ख्वाब कभी चुन पाते
काश अगर ऐसा होता ....
lallan-taap !
जवाब देंहटाएं