अब मैं वो नहीं.....
महिला दिवस की पूर्व संध्या पर .....
सिसकियाँ ....
बंद कमरों में घुटन
और दिमाग के भीतर की सीलन
अब और नही बची
अबकी सही उम्र
से पहले
किताबे लिए हाथों में मेंहदी
भी नहीं रची
अब गली के मोड़ पर
बैठे शोहदों को देख कर
लगता
कोई डर नहीं
अब घर से संवर कर
निकलने पर
पड़ोसियों के तानों का
कोई असर नहीं
अब लड़कों के साथ
खेलने पर
माँ
नाराज़ नहीं होती
अब लड़ती हूँ
बराबर से
अकेले में जाकर
नहीं रोती
अब चलती हूँ
तो सर उठा कर
देखती हूँ लोगों को
आत्मविश्वास से
लड़ी हूँ
सदियों से
तब जा कर आज यहाँ हूँ
अपने प्रयास से ........
बहुत कम जगहों पर हालत बदली है महिलाओं की ... पर अब महिलाओं की स्थिति के सुदृढ होते जाने का भरोसा अवश्य है ... अच्छी रचना है।
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