दुनिया जिसे कहते हैं.....
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दुनिया
आँखें
झपकती
खुलती-मुंदती,
बार बार
देखती हैं,
समझती हैं
कितना अबूझ, यह संसार !
फिर मुंदती हैं
और फिर देखती हैं
देखो जहाँ तक फैला है,
इसका विस्तार
फिर हंसती हैं आँखें
इसकी संपत्ति पर
हैरान हो
इसकी गति पर !
भयभीत हो
इसकी मति पर....
फिर फैल जाती हैं
सोचती हैं
दुनिया का
कितना नन्हा है आकार
दाई आँख के इस कोर
से शुरू
और
बायीं आँख के कोर पर.....
फिर विचलित हो
समझती हैं सारा व्यापार
जान जाती हैं
ये दुनिया है बाज़ार
फिर मुंद जाती है
और
गिरा देती हैं
कुछ बूँद
आंसू................
मयंक
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