माँ काश तुम नारी होती.....


महिला दिवस पर समझ नहीं आया की क्या विशेष लिखा जाए, बचपन से घर में माँ, मौसियों, बुआओं दादियों, नानियों और बहनों को देखते बड़ा हुआ। समय के साथ लगातार स्त्रियाँ वही रही पर उनके किरदार बदलते गए....माँ सास बनी, बहनें किसी की बहू, किसी की भाभी तो किसी की पत्नी, किसी की बहन मेरी भाभी बनी तो कभी कोई बेटी मेरी संगिनी बन जायेगी.........बदलते किरदारों में ही हम हमेशा नारी को पहचानते हैं पर क्या वो इन किरदारों में उलझ कहीं खो तो नहीं गई ?


माँ काश तुम नारी होती.....


माँ
जब तुम बेटी थी
तब तुम
लाडली थी पिता की
रोज़ उनकी दिन भर की थकान को
बदल देती थी मुस्कराहट में


माँ
जब तुम बहन हुई
तब बाँधी तो राखी भाई को तुमने
पर खड़ी हुई ख़ुद आगे
उस पर खतरे की
हर आहट में

माँ
जब थी तुम प्रेमिका
तब एक एक जोड़ा गया
सिक्का
दे डाला था कॉलेज के
उस धोखेबाज़ युवक को

माँ
जब तुम बनी पत्नी
पति की हर
ग़लत हरक़त पर भी
ना दिल में दी जगह
तुमने शक को

माँ
जब तुम बहू थी
तब हर बात
हर ताना, हर व्यंग्य
हर कटाक्ष हर तारीफ़
तुमने निरपेक्ष भाव से सहा

माँ
जब तुम माँ बनी
पहली बार
कितना दर्द सहा
पर किसी से
कभी नहीं कहा

माँ
तुम जब भी
बेटी थी, बहन थी
पत्नी थी या माँ थी
तब भी हर बार तुम माँ ही रही
और कुछ कहाँ थी

पर माँ
तुम सब कुछ थी
तो स्त्री क्यों नहीं हो पायी
क्यों अपने भीतर की
स्त्री को
छुपा दिया इन आवरणों में

क्यूँ ख़ुद के अस्तित्व को
ख़त्म कर डाला
लगा कर
अपने ऊपर चिप्पियाँ हज़ार
हर बार

क्या एक माँ, एक बहन
या कुछ भी और
होने के साथ साथ
तुम्हारे लिए लाज़मी नहीं था
एक स्त्री भी होना

क्यूँ जब तुम बेटी थी
तो बेटे से कम हिस्से पर खुश हो गई....
क्यूँ जब तुम बहन थी
तो खाई
भाई के हिस्से की डांट

क्यूँ हर बार
यह सुन कर भी चुप रहीं
कि लड़की तो धन है पराया
क्यों प्रेमी से ही विवाह का
साहस मन में नहीं आया

क्यों किताबें ताक पर रखी
और थाम ली हाथों में
कड़छियां
नहीं पूछा कभी पिता से कि
क्यों काम करें केवल लड़कियां

क्यों नहीं कभी कहा
कि नहीं
काम में कैसा बंटवारा
सब कमाएं, सब पढ़ें
क्या हमारा
तुम्हारा

मां
क्यों खुद अपनी बेटी को
बोझ मान लिया
क्यों नहीं बहू को लाड़
बेटी सा किया

मां
तुम तो मां थी न
फिर क्या मुश्किल था
तुम्हारे लिए
माँ तो सब कुछ कर सकती हैं ना

माँ
तो फिर
क्यूँ नहीं हो पायी तुम
एक स्त्री
माँ
क्यूँ तुम पर हावी रहा
हमेशा कोई नर

कितना अलग होता
तुम मां, बहन या कुछ भी
होने से पहले
एक नारी होती अगर.....

(मैं ऋणी हूं अपनी मां का जिनकी वजह से आज कुछ बन पाया......पर आज भी अखरता है कि कब तक बच्चों को पालने सिखाने और बड़ा करने की ज़िम्मेदारी, रसोई के बर्तनों का शोर और सलीके सीखने का ज़ोर केवल स्त्रियों पर ही रहेगा और बेटे को पाल कर बड़ा आदमी बना देने वाली माँ बेटी से अन्याय करने पर मजबूर हो जाती है ?)

टिप्पणियाँ

  1. कविता में जीवन के सभी पहलू और हर रंग है । लेकिन याद रखिए प्रकृति ने सभी को उसकी ज़िम्मेदारी दी है । उसे बखूबे अंजाम देना शोषण नहीं कहलाता । क्या माँ बच्चे के लिए जो भी काम लाड़ दुलार से करती है उसे शोषण की श्रेणी में रखा जा सकता है ।

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  2. ahsas aur bhawo ki badiya abhivyakti hai.mahilaye tabhi aage bad sakti hai,jab khud ko srishti ke nirmad ka aadha hissa manegi.bhawnao me na bahte huye lakshya ko sadhna ho hoga.

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  3. सरिता जी, दरअसल आप मेरा सही मंतव्य नहीं समझ पायी.....मेरा अर्थ यह था कि बेशक मां बच्चे के लिए जो कुछ करती है वह लाड़ से करती है पर क्या अधिकतर पुरुष इस काम में उसकी सहायता करते हैं.....?
    एक महिला जो खुद सास का बुरा बर्ताव झेलती है...बहू से वैसा ही व्यवहार करती है
    एक मां खुद पढ़ना चाहती थी पर भाईयों को पढ़ाया गया उसको नहीं....इसका उसे दुख रहता है फिर क्यों वह अपनी बेटी के मामले में चुप रह जाती है .....?
    मेरा आशय यही था !

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  4. गर मां ना होता तो आप ना होते
    गर बहन ना होती तो आपमें संजीदगी ना होती
    गर प्रेमिकी पत्नी ना होती तो आपमें प्रेम ना होता
    गर बेटी ना होती तो आपमें ममत्व ना होता

    गर नारी ना होती तो साचो मित्र
    ये सारी पृथ्वी पर ये सारे अच्छे कार्य ना होते

    ना महाभारत होती ना दुर्योदन से मुक्ति मिलती

    ना रामायण होती ना रावण के पापों से पृथ्वी मुक्त होती

    ना ही दुर्गा होती ना ही चंडी

    ना सती ना ही सावित्री

    और तो और

    ना बिपाशा होती और ना ही मल्लिका

    ना माधुरी होती ना ही जिया खान

    ना पीटी उषा होती, ना ही कर्णम मल्लेशवरी

    ना ही सानिया होती ना ही सायना

    ना ही अल्ला रखा खान होते ना ही अमिताभ

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  5. इस दुनिया में हम जो होते देखते हैं ... उसे ही स्‍वीकार करते हें ... वैसी ही इच्‍छा रखते हैं ... बहुत कम ही लोग उससे परे जा पाते हैं ... हम महिलाओं ने भी जो होते देखा है ... उसे ही ढो रहे हैं और उसी में खुशी ढूंढने की कोशिश करते हैं ... महिलाओं की स्थिति को अच्‍छा रखा है आपने अपनी कविता में।

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  6. स्त्री की सम्पूर्णता मा बनने मेँ है , ऐसा हमारे रिषि कहते हैँ .
    इसीलिये माँ का स्थान सबसे उँंचा माना गया है .
    और माँ और कुछ नहीँ माँ बनती है

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